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२१४ * श्री लँबेचू सामाजक इहिास * पत्ता-जिण - समय . पसिद्धहं धम्म -
समिद्धहं वोहणत्थु मह सावयहं । इयरह महलोयहं पयडिय
मोयहं परिसेसिय - हिंसावयहं ॥१॥ मई अमुणते अक्खर - विसेमू
न मुणमि पबंध न छंद - लेसु । सद्दावसह ण विहत्ति अत्थु
धित्तणेण मइ रइउ सत्थु । दुज्जणु सज्जण वि सहावरो वि
महु मुक्खही दोसु म लेउ को वि
पुत्र, सुकवित्त्व-गुण और विद्या-युक्त जायस-कुल-रूपी आकाश के दिवाकर, अणुवती श्रावकों का आदर करने वाले ने गवरहित होकर अपनी शक्ति अनुसार यह 'अणुव्रतरत्नप्रदोप' काव्य की रचना की, जैनधर्म में प्रसिद्ध, धर्मसमृद्ध, महाश्रावकों तथा मोद प्रकट करनेवाले व हिंसाके त्यागी अन्य महालोगोंके बोधनार्थ ।।१।।
अक्षर विशेष (शब्दशास्त्र) न जानते हुए तथा प्रबंध व छन्द का तथा शब्द, अपशब्द व विभक्ति व अर्थ का ज्ञान न रखते हुए धृष्ठता मात्र से मैंने इस शास्त्र की रचना को। दुजेन, जन व अन्य कोई मुझ मूर्ख को कोई दोष न देना।