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*श्री लँबेचु समाजका इतिहास * ४०३ मन्दिरमें भीतर एक तिदरीकी गन्धकुटी ( वेदी है ) उसमें जो जगन्नाथ आदिकी मूर्ति हैं, सो कपड़ासे लपेटी और वांस लगायके लपेटी है । मालूम होता है कि इसके भीतर पलाथी मारे ध्यान मूर्ति है । उनका तो पेट बनाया और बांस लगाकर कपड़ा लपेट ऊपर सिर बनाया उसमें हीराका जड़ा हुआ मुकुट लगाते अब हाथ-पैर कहाँसे आवै, तब काउकी छोटी-छोटी भुजा, हाथ ऊपरसे लगाये पर भी काठके लगाये । इससे मूर्ति वह ठीक बनी हुई नहीं मालूम होती। एक क्षत्रिय विद्यार्थी हमारे पास पढ़ता था तो वह कहता था कि हमारे बाबा वहाँ नौकर हैं, वे कहते हैं कि इनके भीतर ध्यानकी मूर्ति हैं हम पंडाओंके साथ गये वहाँ परिक्रमा है और बांसोंके कारण वेदी तिदरी तोड़ी है, नीचे हवनकुंड है, ऊपर चक्रेश्वरी आदिके चित्र हैं, शिखर भीतर और दक्षिण दरवाजमें एक खड़े आसन जैनमुर्ति दिगम्बर है और पूर्व दरवाजेके बाहर एक स्थम्भ है, जो मानस्तम्भ होना चाहिये और जो पंडा है वे अपनेको पड़िहारी लिखते हैं। एक कागज छपा हुआ पंडाका मिला उन्होंने दिया।