________________
* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २१७
परिशिष्ट २ कण्हड की कीर्तिवाचक संधियों के आदि के
कुछ पद्य संधि २ वाणी जस्य परोक्यार-परमा चिंता सुदत्थे सया
काया सव्वविदंह-पूय-णिरदा कित्ती जगाच्छाइणी । वित्तं जस्स विहाइ णिच सददं पत्ताण दाणअमे
सो गंदादवणीयले सुअजुवो कण्हो विसुद्धासयो ॥१॥ संधि ३ गीइल्लो णिच्च-चाई सुकइ-जण-मणाणंद कंदुढचंदो
भत्ता सरीण पाए समय-विहि-रसुल्लास-लीला-निकेओ। ___ जिनकी वाणी परोपकार परायण है, जिन्हें चिंता सदा श्रुतार्थ की है, जिनकी काया सर्वज्ञ के चरणों की पूजा में निरत है, कीर्ति जगदाच्छादिनी हैं और संपत्ति नित्य और सतत पात्रदानोद्यम में शोभाममान होती है वे श्रुतयुक्त, विशुद्धाशय कण्ह भूतल पर आनन्द करें॥१॥ ___नीतियुक्त, नित्य-त्यागी, सुकविजनों के मनानंद रूपी कंद को ऊर्ध्वचंद्र, आचार्यों के चरणों के भक्त, समय अध्यात्म शास्त्र विधि