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३१० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * झूठ, चोरी, कुशील व्यभिचार, अधर्म उत्पादक ऐसे धनग्रहादि परिग्रहके जोड़नेमें खुशी होता। अपने समान दूसरे प्राणीको नहीं समझता। हमारे चाकू लगता है, तब दर्दका अनुभव करता हुआ रोता है, तो दूसरेके ऊपर छुड़ी चलानेमें दुख न होगा यह नहीं विचार करता और पाप करता है। खुशी होता है। उस कर्तव्यका जब फल मिलता है, तब रोता है। यही संसार है । संसारमें सबके साथ भलाई करना और अपना हित देखना जिनधर्म
का उपदेश है। मोह, राग-द्वेष ही प्राणीके अहित करते हैं, इसे छोड़ो यही जैन धर्म का मूल है उसूल है।
इसको संसारी प्राणी नहीं समझते जो प्राणी जीव मात्रको हितकर है, फिर न जाने क्यों जिन धर्मके उपदेश लेते। खेद है भगवान्ने सबको उपदेश दिया उस समय बलदेव ( बलभद्र ) महागजने भगवान्को नमस्कार, पूछा कि हे भगवन् यह द्वारकापुरी देवोंने रची है, इसकी कितनी स्थिति है। तब भगवान्की वाणीमें उत्तर हुआ कि यह द्वारावती १२ वर्ष बाद दीपायन मुनिको यादव तालाबमें महुआ चुयेगा, उस पानीको पीकर मुनिको बेहोशीमें ईटों