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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६३ एक घुली रोलीका एक चावलोंका और एक थैली सुपारी की संग जाती है।
प्रत्येक कार्यमें विवाहकमें तिलक करना चावल लगाना, सुपारी ४ चार देना आम रिवाज है। गरीब
और अमीर सब करते हैं और छतपर जीमने जाते वहां भी तिलक किये बिना किसीको उतरने नहीं देते। जो जीमनेके बाद दो आदमी आकर एक पंखा लेकर छोटा सा आवैगा । दूसरा भी दोनों जुहारु करते जायंगे ।
विनयसे जुहारु शब्द युद्धकारका अपभ्रंश है जो क्षत्रियत्वका द्योतक है। इस जुहारके बिना बात नहीं करते। आशाधर भी बड़े विद्वान थे ( बघेला ) वंशीय क्षत्रिय थे जो लमेचुओंके गोत्रों में से क्षेरे (बघले) गोत्रकी एक जाति हुई और जैनियोंमें बघेरवाल कहने लगे उस समयमें भी इतिहासके खोजकी दृष्टि नहीं थी ऐसा प्रतीत होता है। तो लिखते हैं स्यात् सागरधर्मा मृ०
श्राद्धाः परस्परं कुर्य जुहारु रिति संश्रयम्
क्षत्रियोंके परस्परका विनय जुहार है और लोगोंकी देखादेखी रामराम जैगोपालकी जगह जयजिनेन्द्र चल गया