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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २८७ विन्ध्याचल जूनागढ़से हैदराबाद होता हुआ कर्णाट देश तक चला गया है । विन्ध्याचल गिरनारसे सौ पचास मील ही समुद्र है। वह विन्ध्याचल गजनिक बनकर रमणीक और जहाँ सिंह शाईल बहुत और जाका शिखर आकाशमें लग रहा है, सो वा गिरीकी शोभा प्रजाक मनको हरती भई और इनको निकसे सुन पीछेसे जरासिंध गया तब इन यादवोंने सुनी जो वह आया तब महा उत्सव करि यादव युद्धको उद्यमी भये, अल्पही अन्तर दोनों सेनाके रह गया तब तीन खण्डक निवासी देव माया भई सामथ्र्य कर विक्रिया रचते भये ठोर-ठोर जगह-जगह अग्निकी ज्वाला प्रज्वलित है। और यादवनिक समूह अग्निमें जरे हैं, और सब कटक जरे हैं। और अग्निकी ज्वाला कर मार्गमें रास्तागीर भी चलते न देखे. और एक देवी मनुष्यिणी का रूप धरें रोती दखी, तिससे जरासिंधने पूछा यह विस्तीर्ण कटक ( विशाल सेना ) किसकी जले है, और तं क्यों रोवे है, और तूं कौन है।
इस भांति पूछी जब वह देवी बूढी कष्टकरि श्वांस लेती (नीठ-नीठ) कष्टसे कहती भई रोनेसे रुका है।