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२१८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वंदो कुंदावदातामल सजस-छुहा-छोहियासो गहतो
धम्मं पाणीहि णिचं कह ण इह जए कण्हडो संसणिज्जो ।२। संधि ८
भो कण्ह तुम्ह महि-मंडलभिम सछंद-चारिणी कित्ती । धवलंति भमइ भुवणं पिहुलमसेसं सलीलाए ॥३॥ कंदावदा (त)-रुचि कीरमाण ककुतरंत-दीवंत । तीय ताविछ-छवि खल-बयणं कयं इतं चित्तं ॥४॥
के रसोल्लास कोलोला के निकेत, वंदनीय, कुंदवत् निर्मल यशोरूपी सुधासे आकाश को सुशोभित करने वाले और धर्मरूपी जल से नित्य स्नान करने वाले कण्हण इस जगत में कैसे प्रशंसनीय नहीं है ? ||२|
हे कण्ह, महीमण्डल पर स्वच्छंदचारिणी तुम्हारी कीर्ति समस्त विशाल भुवन को धवल करती हुई सलील भ्रमण कर रही है ॥४॥
यह कीर्ति समस्त दिशाओं और द्वीपान्तरों को तो कुंद के के समान धवल वण कर रही है पर खलों के मुख को तापिच्छ (तमाल) के सदृश कला कर रही है, यह बड़ी विचित्रता है ।।४।।