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२०८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * मिच्छत्त - जरंहिव- ससण- मित्त
णाणिय-परिंद महनियनिमिच (?) अवराह - वलाहय - विसम - वाय
वियसिय जीवणरुह वयण छाय । भय - भरियागय · जण- रक्खवाल
छण-ससि.परिसर-दल-विउल-भाल । संसार - सरणि - परिभमण - भीय
गुरु - चरण - कुसेसय - चंचरीय ।
श्याम, अन्य द्वीपों के वासी नरों द्वारा जिनके नाम की स्तुति की जातो है, प्रवचन (शास्त्रोपदेश) के वचनामृत के पान से तृप्त सब भव्य जनों के धर्म-मित्र, मिथ्यात्व-रूपो जीर्ण वृक्ष के लिये अग्नि, ज्ञानी राजा के सहज मित्र (?), अपराध रूपो मेघों को प्रचण्ड वायु, विकसित कमल के समान मुखकांति के धारक, भय से भरे हुए आनेवाले जनों के रक्षपाल, पूर्ण चन्द्रमण्डल के अर्ध भाग समान भालयुक्त, संसार-सरणी में परिभ्रमण से भीत, गुरु के चरणकमलों के चंचरीक, धर्म के आश्रित हुए समझदार लोगों का पोषण करनेवाले, निरुपम राजनीति माग के ज्ञाता, यश के प्रसार से ब्रह्माण्ड-खण्डको भर देनेवाले, मिथ्यात्व-रूपो पर्वत के वज्रदण्ड, माया, मद, मान और दम्भ के त्यागो, महामति-रूपो हस्तिनो को