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* लँबेचू समाज का इतिहास *
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जिण - समय - सत्थ-वित्थरण-दक्ष
गुण - मणहारंकिय- वियड- वच्छ । सम्मत्ताहरण - विहूसियंग
सुहियण-कइरव-वण-सिय. पयंग । णिम्मलयर - सरयायास - साम
दीवंतु - वासि-णर-थुणिय- णाम । पवयण - वयणामय - पाण - तित्त
सव्वहं भव्ययणहं धम्म-मित्त ।
उसे सुनकर कह रोमाञ्चित हो उठे और दो तीन शब्दों में ही उनका प्रपंच (मनोमालिन्य) दूर हो गया। बहुत भक्ति से कण्ह ने लक्ष्मण कवि से रमणीय सागराधर्म पूछा। ___ “हे सम्यक्त्व के आठ गुणों की कला के निवन्ध, मेरे अशुभ आस्रव कर्मों के बन्धनों को तोड़िये ।" यह सुन कर, जिन चरणों की पूजा में हाथ फैलानेवाले साहुल पुत्र बोले “हे लंबकंचुक-कुलरूपी कमल के सूर्य, अपने कुल और अन्य मनुष्यों के मन की आशा को पूरी करनेवाले, जैनधर्म और शास्त्र के विस्तार में दक्ष, गुण रूपो मणियों के हार से अपने विशाल वक्षस्थल को शोभित करनेवाले, सम्यक्त्व के आभरण से विभूषितांग, सुहृदजन-रूपी कुमुदवन के चन्द्र, खूब निर्मल शरत्कालीन आकाश के समान