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१६६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कूडावीडग्गाइण्ण वोमु कलहोय
कलस-कलविचि- सोमु । चउसालउ तोरणु सिरि जणंतु
पड - मंडव - किंकिणि - रण-झणंतु । देहरुहु तासु सिरि साहु सोढ
जाहड - गरिंद - सहमंत - पोढु । धत्ता-संभूयउ तहो रायहो,
लछि सहायहो, पदमु जण-मणाणंदणु। सिरि बल्लालु णरेसरु, वं
जिय-सरु, सुद्धासउ महणंदणु ॥७॥
लक्ष्मण मन में बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने काव्य-रचना करने की ठान ली। यदि मदमत्त, वन का गंध हाथी, अपने दांतों की किरणों से चमकता हुआ और अपनी चिक्कार से दसों दिशाओं को भर देनेवाला वश में हो जाय और अपने घर आवे तो कहो उसे कौन तुरन्त नहीं चाहेगा ? सुप्रसन्न अनुराग से यदि वह तुम्हारे घर आवे तो कहो कौन द्वार के कपाट लगा देगा। जिसने अपने वाणों की वर्षा से चतुरंग सेना को घायल किया है, जो धन, कन, कांचन से सम्पूर्ण और चंगा है ऐसे सवार को अपने घर के सामने आते देख कहो भला कौन द्वार बन्द कर देगा ?