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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास *
तर्हि लंबकंचुकुल गयण-भाणु
परवइ- समज्ज सर
हल्लणु पुरवड़ सब्बह पहाणु ।
नरनाह सहा- मंडण
तहो अमयवाल तणुरुहव हूउ
जणिट्ठ
जिण सांसण- परिणइ पुण्ण- सिठु ।
वणि पट्ट किय-भालयल- रूउ |
रायहंसु
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सो अभयवाल णरणाह-रज्जे
सुपहाणु
जिण भवण करायउ तं ससेउ
महमंत धविय चउहाण वंसु ।
राय वावार कज्जे ।
केयावलि झंपिय-तरणि तेउ ।
चली गई। रात्रि बीतने पर संयम रूपी लक्ष्मी से विशुद्ध कवि लक्ष्मण जागे ।
जिनदेव की वंदना और धर्म रत्न का अर्जन कर के, शिथिल नयन होकर, मन में ध्यान करने लगे । रात्रि में जो वृत्तान्त हुआ था, उसकी बार-बार भावना करने लगे- 'अंबादेवी ने जो पवित्र बात कही है वह कदापि असत्य व शून्य नहीं हो सकती, वह मेरी चित्त की आशा को पूरी करनेवाली पुण्य बात है ।'