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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १६३ घर-रंगुप्पण्णउ कप्परुक्खु
जले कवणु न सिंचइ जणिय-सुक्खु । सयमेव पत्त घरु कामधेणु
पज्जहइ कवणु कय-सोखसेणु। चारण-मुणि तेएं जित्त-भवइ
गयणाउ पत्त किर को ण णवइ । पेऊस-पिंड करे पत्तु भन्दु
को मुयइ निवे (इय) जीवियन्तु। महविज्जक्खर-गुण-मणिणिहाणु
पवयण वयणामय-पय- पहाणु । घर-धम्मिय-गर-मण-(बो) हणत्यू
वरकइणा विरइउ परमु सत्थु । उन्होंने कहा- हे, सुख स्वभाव, कवि-कुल के निर्मल तिलक, गर्वरहित, जिन धम-रसायण के पान से तृप्त, तुम धन्य हो जिसका ऐसा चित्त हुआ। तुम्हें जो चिन्ता क्लेश हुआ है, उसको त्याग कर मन में संकल्प कर लो। आहवमल्ल राजा के महामंत्री शुद्ध जिन शासन में परिणति रखने वाले, गुणों से भरपूर, कण्हड, अपने कुल-रूपो कैरव के चन्द्रमा, जिन्हें राजा ने सब में प्रधान बनाया है, जो सम्यक्त्ववान्, आसन्न-भव्य, श्रावक के व्रतों को