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१६४ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * एमेव लद्ध मह-पुण्ण-भवणु
अवगण्णइ णरु धीमंतु कवणु। धत्ता- इह महियले सो धण्णउ,
पुण्ण-पउण्णउ, जसु णामें सुपसाहमि । चिंतिउ लक्खण कइणा,
सोहण-मइणा, कन्च रयणु णिन्वाहमि।।५ इह चंदवाडु जमुणा-तडत्यु
दंसिय विसेस गुण-विविह वत्थ । चउहट्ट हट्ट-घर-सिरि-समिद्ध
चउवण्णासिय-जण-रिद्धि-रिछु । भूवालु तत्थ सिरि भरहवालु
णिय-देस-गाम णर-रक्खवालु। 'पालनेवाले और गर्वरहित हैं, वे तुम्हारे इस दुविधाजनक मन के संशय को सर्वथा नाश करेंगे और तुम्हारे जैन धर्मोज्ज्वल, उच्च कविता के प्रभाव को अच्छी तरह प्रकाशित करेंगे। यह जानकर तुम मन को तन्द्रा को दूर करो। हे सजन ! इस कार्य में अब मन्द मत होओ। उनके नाम से श्रावक विधि का विस्तार बतलाने वाला एक उत्तम भव्य काव्य रचो।' ऐसा कहकर और उनके मन की चिन्ता को मिटा कर अंबादेवी अपने स्थान को