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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास *
कण्हडु कुल-कइरव-सेय-माणु
पहुणा समज सव्वहं पहाणु । सम्मत्तवंतु आसण्ण-भव्यु
सावय-वय-पालणु गलिय गन्छ । पत्ता-सो तुम्हहं मण-संसउ
जाणिय-दुहंसउ णिण्णासिहइ समुच्चउ । सुपयासिहइ कइत्तणु तुम्ह
पहुत्तणु जिण-धम्मुज्जलु उच्चउ ।।। इउ मुणेवि मणसि णिद्दलहि तंदु
इह कज म सजण होहि मंदु । तहो णमें विरयहि पयडु भन्बु
सावय-वय-विहि-वित्थरण-कन्छ । मण्डन और दुर्नय-खन्डन हैं, मिथ्यात्व से जीते नहीं गये, ज्ञान में विचक्षण और जिन्हें पर-मत के राग ने छुआ भी नहीं है। ___ एक दिन ये सुकवि प्रसन्नचित्त से शय्या पर लेटे हुए विचार करने लगे-मेरा ज्ञान-रत्न बड़े घड़े के सदृश भारी तथा विद्वानों और भव्यजनों को हर्षे उत्पन्न करनेवाला है। वह हस्त कंठ व कर्ण में पहना नहीं जा सकता। उसकी जोड़ में नर और हर की मति स्तब्ध रह जाती है। (?) मेरा सुकवित्व और विद्या