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* श्री लॅबेच समाजका इतिहास * १८६ अइ-णिन्भर-णिद्दाणंद-भुत्तु
___ संवेइय-मणु जा सिज सुत्तु । ता सुइणंतरि सुसमइ पसत्त
जिण-सासण-जक्खिणि तम्मि पत्त । वाहरिउ ताई हे सुह-सहाव
कइ-कुल-तिलयामल गलिय गाव । जिण-धम्म-रसायण-पाण-तित्तु
तुई धण्णउ एरिसु जासु चित्तु । चिंता-किलेसु जं तुम्ह बप्प
तंतजिवि सज्जहि मण-वियप्प। अहमल्ल-राय-महमंति सुद्ध
जिण-सासण-परिणइ गुणपवधु । जीत लिया था। गंगा की तरंगों की कल्लोलमाला के समान अपनी कीर्ति से उन्होंने समस्त दिशाओं को भर दिया था। ___ उनकी बाणी कोकिला के कंठ के समान मीठी थी। अच्छे गुणरूपी रत्नों की तो वे खानि ही है। ये शत्रु राजाओं को असह्य रणकला से भी चतुर थी। शंकर की गौरी के समान श्रेष्ठ और सौभाग्यशील दिखाई देती थीं।
उसी नगर में सूप्रसिद्ध कवि लक्ष्मण भी हैं जो कवि-कुल के