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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास #
एकहिं दिणे सुकइ पसण्ण-चित्तु
णिसि सेजायले झायह सत्तु ।
महु बोह - रयणधडगरुय - सरिसु
बुहयण भव्त्रयणहं जणिय- हरिसु ।
कर कंठ - कष्ण पहिरण असक
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महु सुकइत्तणु विजा-विलासु
आणंद-लयाहरु अमियरोइ
मई असुह-कम्म परिणइ सहाउ
र-हर-मई तेण सजोरु थक्क |
बुहयण- मुह मंडणू साहिलासु ।
वि याण सुइण इत्थ को वि ।
उग्गमिउ सहिवउ दुह - विहाउ ।
प्रसन्न करनेवाले कंकण और केयूरों से सुशोभित जिसकी भुजायें थीं, उनका प्रफुल्ल मुख पूर्णिमा के चन्द्रबिम्ब के समान से वचन मोतीमाल समान निकलते थे और नयन निर्मल कमलदल के सदृश सरल थे । दिग्गज हाथियों के समान उनकी सुन्दर गति है । बन्दीजनों के मन की आशा का पूरी करने में वे दानशील हैं, वे अपने परिवार के कार्यभार को सम्हालने में आसक्त रहती थीं। यद्यपि उनका शरीर केले के भीतर दल के समान सुकोमल है ।