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१८४ श्री लंबेचू समाजका इतिहास * साहण- समुदु बहु रिद्धि-रिधु
अरि-राय-विसहं संकरु . पसिधु । पत्ता-पालिय-खत्तिय-सासणु परबल
तासणु ताण मंडल उवासणु । मह-जस-पसर-पयासणु णव जलहरसणु
दुण्णय- वित्ति - पवासणु ॥३॥ तहो पट्ट-महाएवो पसिद्ध
ईसरदे पणयणि पणय-विद्ध । णिहिलंतेउर - मज्झए पहाण
णिय-पइ-मण - पेसण सावहाण । सज्जण-मण • कप्प महीय - माह
कंकण - केऊरंकिय . मुवाह । करने ( समझने ) में वे दक्ष हैं। पड़ोसियों तथा प्रत्याश्रितों के कक्ष अर्थात् आश्रयदाता हैं। उनको चौड़ी तलवार जीभ सी लपलपाती है, वे रिपु की सेनारूपी प्रचंड सुंडवाले मत्त हाथी को सिंह के समान हैं। वे बहुत विकट साहस के उद्दाम स्तम्भ हैं। उनका नाम चारों समुद्रों के अन्त तक प्रकट है। उनका शरीर नाना लक्षणों से संयुक्त हैं। वे चन्द्रमा के समान भृजु (उज्ज्वल) और समुद्र के समान गंभीर हैं। दुष्प्रेक्ष (मिच्छ ) मिथ्यात्व