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१८२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * माणिणिमण - मोहणु मयरकेउ
णिरुवम-अविरल-गुण-मणि-णिकेउ। रिउ-राय उरत्थल - दिण्ण - हीरू
विसुमुण्णय समरे भिडंत वीरु । खग्गग्गि डहिय-पर-चक्क वंसु
वरीय - बोह - माया · विहंसु । अतुलिय.बल खल.कुल-पलय-काल
पहु-पट्टालंकिय विउल भालु । सत्तंग-रज्ज - धुर - दिण्डखंधु
___ संमाण-दाण - पोसिय - सबन्धु । णिय-परियण-मण-मीमत्सण - दच्छ
परिवसिय- पयासिय - केर कच्छु । अंग विभूषित है, अपराधरूपी मेघों के लिये वे प्रलय-पवन हैं, बड़े बड़े मागध-गणों को जिन्हों ने तपनीय अर्थात् सुवर्ण का दान दिया है, वे दुर्व्यसनरूपी रोग को नाश करने में प्रवीण हैं । उन्होंने अपने अस्खलित यश से चन्द्रमा को होन कर दिया है। वे पञ्चांग मन्त्र के विचार में प्रवीण हैं, मानिनी स्त्रियों के मन को मोहने में कामदेव ही हैं, और निरुपम, अविरल गुणरूपी मणियों के निकेत हैं। उन्होंने रिपु राजाओं के उरस्थल में चोट दी है। वे बड़े