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*श्री लँबेचू समाजका इतिहास *
सट्टल सतोरण विविह - वण । पडुर-पायारुण्णइ
समेय
__ जहि सहहि णिरंतर सिरिनिकेय। चउहद्द चच्चरुदाम जत्थ
मग्गण-गण - कोलाहल - समत्थ । जहिं विवण विवण घण कुप्पभंड
जहि कसिअहिं णिच्च पिसंडि खंड । णिच्चिच-दाण - संमाण - सोह
___ जहिं वसहि महायण मुद्धबोह । ववहार चार सिरि सुद्ध लोय
विहरहि पसण्ण चउवण्ण लोय । सहित विविध वर्ण है, सफेद और ऊँचे उसके प्राकार हैं, वहीं निरन्तर श्रोनिकेत शोभायमान हैं। बड़े बड़े चौहट्ट और चौराहे वहां पान्थरास्तागीरों के कोलाहल से भरे हैं, जहां दूकान दूकान में बहुत से कांसे पीतल आदि के भांड हैं, अनेक वस्त्रों से भरे हैं, जहां नित्य सुवर्ण-खण्ड कसे जाते हैं। जहाँ नित्य इच्छादान सम्मान से सुशोभित समझदार शुद्धज्ञानी महाजन बसते हैं । व्यवहार में, आचार में शुद्ध दृष्टि रखने वाले चारों वर्गों के लोग जहां प्रसन्नता से विहार करते हैं, जहां सुवर्णके खूब चूडा अलंकार पहने, पूरा-पूरा