________________
* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १७६ . जहिं कणयचूड - मंडण - विसेस |
सिंगार-सार-कय निरवसेस । सोहग्ग लग्ग जिण धम्म - सील
माणिणि-णिय पड़ वय वहण लील । जहि पण्ण - पऊरिय - पण्ण - साल
गायर - णरेहिं भूसिय विसाल । थिय जण (जिण) बिंबुजल जणिय-सम्म
कूडग्ग - धयावलि - रुद्ध - घम्म । चउसालण्णय - तोरण - सहार
जहिं सहहिं सेय सोहण विहार । जहिं दविणंगण वहि-प्रम-छित्त
लावण्ण-पुण्ण-धण - लोल-चित्त । शृङ्गार किये, सौभाग्य में लीन, निज-धर्मके अनुसार शील पालनेवालो महिलायें अपने पतिव्रत-धर्मको आनन्दसे धारण करती हैं। ___ जहाँ प्राज्ञ पुरुषों से भरी हुई विशाल पुण्यशाला नागरिक नरों से विभूषित है, वहीं जिनबिम्बों से उज्ज्वल, सुख उत्पन्न करनेवाले, मन्दिरों के शिखर स्थित थे जो अपनी ध्वजावलि से सूर्य के आताप को रोक रहे हैं। जहां ऊँची चतुःशालायें तारण और हारां से संयुक्त है और श्वेत रमणीक विहार शोभायमान हो