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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास - १३३ तुम कौन हो ? हम बोले-लम्बेचे हैं। तब उन्होंने कहातुम वे ही लम्बेच हो, जो कुआं में गिर पड़े थे। धोखे से जब लोगों ने तुरन्त निकाले, तब उन्हीं से पूला, भोजन कर लो। तब वे वोले हम जीम कर गिरे थे। तब हमने कहा हम वे ही लम्बेच हैं, तब इससे स्वाभिमान ही सिद्ध हुआ कि विशेष आदर से कहे बिना किसी के खाना नहीं क्या जाने वह मनुष्य हमारी मनकी इच्छा जानने के लिये ही पूछता हो। और उसके भोजन तैयार न हो, तब तुरन्त हाँ, कहने से वह भी संकोच करें।
और अपने भी संकोच होवे । इससे आदर से कहे बिना मत चाहो एक बार हम संवत् १६६० में ईडर गुजरात में नौकरी के लिये गये। हमें पं० धन्नालालजी ने बम्बई में सेठ माणिकचंद पानाचन्द से मिलने को बुलाया। बम्बई में जैन बोर्डिंग में ठहरे। वहाँ निवृत्त होकर सेठजी की गद्दी में खारी कुई के पास गये। गद्दी में बैठे रहे, हमें प्यास जोर की लगी भादवे का महीना था, हमने अपने जाति की अभ्यास (आदत) से गद्दी में पानी का घड़ा धरा था। पर पानी नहीं मांगा, चार बजे तक बैठे रहे। सेठ