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*श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * १३१ हरिती युवनाश्वस्य हारिताः शूरयः स्मृताः। एते अङ्गिरसः पुत्राः क्षात्रो पेता द्विजातयः ॥७३॥
(वायु पुराण ८८ अध्याय ) और विष्णु पुराण में भी तीसरे अध्याय में भी यही कथन है ( राजपताना पे० ५२७)। यह हमने प्रसङ्गवश इसलिये लिख दिया है कि क्षत्रियों के गोत्र तथा प्रवर कहे । तहाँ प्रवर ( गोत्र ) वंश में परम प्रसिद्ध पुरुषों के सूचक कहे और गोत्र कुल परम्पराय से कहे। गोत्र वंश और देश के अलल को भी गोत्र मान लेते हैं। कोई कृत्य से भी मान लिये गये और इसमें वायुपुराणादिक वैष्णव ग्रन्थों का कथन यों दिखाया कि उनके यहाँ भी क्षत्रियों में से ब्राह्मण हुए ( क्षत्रिय ब्राह्मण हुए ) और यह भी दिखाया है कि ब्राह्मणों के वंशधर क्षत्रिय हुए, पर क्षत्रियों के वंशधर ब्राह्मण कभी नहीं हुए। कहीं भी नहीं लिखा ऐसा गौरीशंकर हीराचन्द ओझाजी ने लिखा है। इसका तात्पर्य यह गौतमादि ऋषि गोत्र कहे सो उनकी पुरोहिताई या मान्यता के कारण कहे ; किन्तु इन ऋषियों को क्षत्रियों का वंशधर न समझो अथवा कहीं पर इनको पुत्र