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१२८ *श्री लेवेचू समाजका इतिहास प्रवृत्ति देखी जाती है, कहीं प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। निपात से ही शब्द सिद्ध होते हैं 'यल्लक्षणेनानुत्पन्न तत्सर्व निपातात् सिद्धं' जो लक्षण शास्त्र से सिद्ध न हो, वह सब निपात से सिद्ध होता है, तो कहीं प्रवृत्ति देखी जाती और कहीं नहीं देखी जाती। बाहुलक से (बाहुल्य कथन से) और कहीं विकल्प विधि होती है। एक बार प्रत्यय का प्रयोग होता है और एक बार नहीं होता है
और कहीं और का और ही हो जाता है। वर्ण विपर्यय हो जाता है, तो आचार्य कहते हैं विधि ( देव ) कर्म का ( विधि ब्रह्मा को भी कहते हैं ) विधान कृत्य अनेक प्रकार का होता देख चार प्रकार का ( बाहुलक ) बाहुल्यता का कथन बतलाया है देखो जैसे
वर्णाऽऽगमो गवो द्रादौ सिंहे वर्ण विपर्ययः । ___षोड़शादौ विकारः स्यात् वर्ण नाशः पृषोदरे । गो अग्रे ( प्लस ) इन्द्रः यहाँ पर गो शब्ब के अगाड़ी अवर्ण का आगम करके गवेण्द्रः बनाया और हिसि हिंसायां धातु ( मसदर ) है, उसके नुमागम करके हिनस्तीतिहिंस बनाया । यहां हिंस का सिंह बनाया, हिंस शब्द में हकार