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तीर्थकर और प्रतीक-पूजा
स्वप-यह लम्बोतरी प्राकृति का होता था और इसमें चार वेदिकायें होती थीं।
धर्मचक्र-गोल फलक में बना हुया चक्र होता है, जिसमें बारह या चौवीस पारे होते हैं। कोई धर्मचक्र हजार प्रारों का भी होता है। मूर्तियों को चरण-चौकी पर इसका अंकन प्रायः मिलता है।
स्वस्तिक-एक दूसरी को काटती हई सीधी रेखायें, जो सिरे से मूडी होती हैं। इसका प्रयोग रवतन्त्र भी होता है और अष्ट मंगल द्रव्यों में भी होता है।
नन्द्यावर्त-मन्द्य का अर्थ सुखद या मांगलिक है पार पावत' का अर्थ घरा है। इसका हर स्वस्तिक जैसा होता है किन्तु इसके सिरे एकदम घुमावदार होते हैं, जबकि स्वस्तिक का मोड़ सीधा होता है।
चैत्यस्तम्भ-एक चौकोर स्तम्भ होता है, जिसको चारों दिशायों में तीर्थकर-प्रतिमाये होती हैं और स्तम्भ
के शीर्ष पर लघु शिखर हो
चंत्यवक्ष—प्रत्येक तीर्थकर को जिस वक्ष के नीचे केवल जान होता है, वह उसका चैत्यवृक्ष कहलाता है। किन्तु कला में प्रायः अशोक वृक्ष का ही चल्यवृक्ष के रूप में अंकन हुआ है। बहुधा वृक्ष के ऊपरी भाग में तीर्थंकरप्रतिमा भी अंकित होती है।
श्रीवत्स-तीर्थकर की छाती पर एक कमलाकार चिन्ह होता है शक-कषाण काल तक तीर्थकर प्रतिमाओं पर श्रीवत्स चिन्ह का अंकन नहीं मिलता। सम्भवतः गुप्त काल से इसका प्रचलन प्रारम्भ हुना।
सहस्रकट-एक चौकोर पाषाण स्तम्भ में १००८ मूर्तियां उत्कीर्ण की जाती हैं, वह सहस्रकूट कहलाता है।
सर्वतोभद्रिका-एक स्तम्भ में चारों दिशाओं में तीर्थंकर-प्रतिमा होती हैं। कभी तो एक स्तम्भ में चारों प्रतिमाय एक ही तीर्थकर की होती हैं और किसी में विभिन्न तीर्थकरी की चार प्रतिमाय होती हैं।
हिमूर्तिका, त्रिमूर्तिका-एक ही फलक में दोनों ओर एक-एक मूति होती है। कभी कभी एकही और दो तीर्थकरों की मृतियां होती हैं। इसी प्रकार एक ही फलक में एक और एक नीर्थकर की और दूसरी और दो तीर्थकरों की मूर्तियाँ होती हैं। किसी फलक में एक ही ओर नीन तीर्थंकरों की मूर्तियां होती हैं।
त्रिरत्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ये तीन रत्न कहे जाते हैं, जिन्हें विरत्न अथवा रत्नत्रय कहते हैं। इनके प्रतीक रूप में एक फलक में एक ऊपर और दोनीने छेद कर दिये जाते हैं। मथुरा में ऐसे त्रिरत्न मिले हैं।
अष्ट मंगल द्रव्य-स्वस्तिक, धर्मचक्र, नन्द्यावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, मीन युगल, पदम पार दर्पण यं अप्न मांगलिक कहलाते हैं। इनके स्थान पर कहीं छत्रत्रय, चमर, दर्पण, भृङ्गार, पंखा, पुष्पमाल, कना, स्वस्तिक और भारी ये आठ वस्तु, बताई हैं।
अष्ट प्रातिहार्य-कल्पवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दुन्दुभि, सिहासन, दिव्य ध्वनि, छत्र, चमर और भामण्डल ये नीथं. करों के अष्ट प्रातिहार्य होते हैं। प्रतिमाओं पर इनका अंकन गुप्तकाल से होने लगा है।
सोलह स्वप्न-तीर्थकर माता गर्भ धारण करने से पूर्व रात्रि में सोलह सभ स्वप्न देखती है। वे इस प्रकार हैं
हाथी, २बल, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी, ५ दो पुष्पमाला, ६ चन्द्र, ७ सूर्य, ८ दो मछलियां, जल से पूर्ण दो स्वर्णकलश, १० कमलों से परिपूर्ण सरोवर, ११ समुद्र, १२ सिंहासन, १३ देव विमान, १४ धरणेन्द्र का भवन १५ रत्नराशि, १६ निधूम अग्नि ।
नवनिधि-सर्प, पिंगल, भाजूर, माणवक संद,पाण्डक, कालश्री, वरतत्त्व और तेजोदभासि महाकाल ये नौ निधियां होती हैं । समवसरण के भीतरी और बाहरी गोपुरों में नबनिधि से शोभित अष्ट मंगल द्रव्य आदि रहते हैं। नव निधि चक्रवर्ती के भी होते हैं। अत: चक्रवर्ती भरत की मूर्तियों के साथ कहीं कहीं नौ घटों के रूप में नव निधियों का अंकन मिलता है।
नवग्रह-१ रवि, २ चन्द्र, ३ कुज, ४ बुध, ५ गुरु, ६ शुक्र, ७ शनि, ८ राहु, केतु ये नवग्रह कहलाते हैं। इनका अंकन द्वारों, तीर्थकर-मृतियों, देव-देवी मूर्तियों के साथ भी हया है और स्वतन्त्र भी हमा है।
मकर मुख-मन्दिरों की द्वार देहरियों के मध्य में तथा स्तम्भों पर मिलते हैं। शार्दूल-शार्दूल के पिछले परों के पास और अगले पैरों की लपेट में एक मनुष्य दिखाई पड़ता है और