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तीर्थकर और प्रतीक-पूजा
प्रदक्षिणा-पथ भी बनने लगे जो प्रायः काष्ठ की बेष्टनी से बनाये जाते थे। कुषाण काल में ये पापाण के वनने लगे। (प्रो० वो ऐन लुनिया-प्राचीन भारतीय संस्कृति, पृ० ५६५) ।
कुषाण काल में जैन मन्दिर और भी अधिक बनने लगे। इस काल में मथुरा, अहिच्छत्रा, कौशाम्वी, कम्पिला ओर हस्तिनापुर प्रमूख जैन केन्द्र थे।
गुप्त काल (ई. चौथी से छटो शताब्दी) में मन्दिरों का निर्माण प्रचुरता से होने लगा । सौन्दय और मन्दिरों के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। इस काल में स्तम्भों को पत्रावली और मांगलिक चिन्हों से अलंकृत किया जाने लगा । तोरण और सिरदल के ऊपर तीर्थकर-मूर्ति बनाई जाने लगी। गर्भगृह के ऊपर शिखर बनने लगा। बाहर स्तम्भों पर आधारित मण्डप को रचना होने लगी। वाह्य भित्तियों पर मूतियों का अंकन होने लगा।
ई०६०० के बाद उत्तर भारत में 'नागर शैली' और दक्षिण भारत में 'द्रविड़ शैली' का विशेष रूप से विकास हुआ । शिखर के अलंकरण की और विशेष ध्यान दिया जाने लगा।
प्रत्येक मन्दिर के पाठ ग्रंग होते हैं-अधिष्ठान, वेदी बन्ध, अन्तर पत्र, जंघा, वरण्डिका, शूकनासिका, कण्ठ और शिखर । शिखर के तीन भाग होते हैं—ामलक, प्रामलिका और कलश ।
गुप्त काल के पश्चात् जो परिवर्तन हुए, उनसे मन्दिरों को चार शैलियाँ प्रकाश में प्राई-(१)गुर्जर प्रतिहार शैली (२) कलचुरि शैली (६) चन्देल ली और (४) कच्छपघात शैली। गुर्जर प्रतिहार शैली में मन्दिर गोलाकार बनते थे। उन्हें पूर्णभद्र कहा जाता है । भीतर गर्भगृह और बाहर एक मण्डप बनता था । स्तम्भों पर घटपालव, कुमुद, स्वर्जूर पत्रावली, कमल, मलवारण, वसन्त पदिका आदि का अलंकरण होता था। द्वार के अलंकरण में पाग, हंस, कीजिय ना पायंकन होता था। .
कलचुरि शैली में पूर्व की अपेक्षा अधिक निखार पाया 1 सप्त शाखा द्वारों का प्रारम्भ इसी काल में हुआ । द्वारों के तोरण पर सात पट्टिकायें होती थीं जिन पर प्रमशः रूप, व्याल (शार्दूल), मिथुन, नवग्रह, दिक्पाल
और कमल-कलश अंकित किये जाते थे। इस शैली में शिखरों की ऊंचाई बढ़ती गई। पंचायतन शली भी इस समय विकसित हुई।
चन्देल शैली में कलचुरि शंली की अपेक्षा हर तत्त्व में विकास हुआ। रति चित्रों का अंकन इसी काल में हुआ।
प्रौर कच्छपघात शैली में कला में अलंकार पक्ष प्रबल होता गया। भित्तियों पर मानव-मूर्तियों, अप्सरामों और योगिनियों के चित्र बनने लगे।
इस प्रकार विभिन्न कालों में मन्दिरों के रूप और कला में विभिन्न परिवर्तन होते रहे । कला एकरूप होकर कभी स्थिर नहीं रही। समय के प्रभाव से वह अपने आपको मुक्त भी नहीं कर सकी। एक समय था, जब तीर्थकर प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बनाई जाती थी, किन्तु आज तो तीर्थकरों के साथ प्रष्ट प्रालिहार्य का प्रचलन ही समाप्त सा हो गया है, जबकि शास्त्रीय दृष्टि से यह आवश्यक है ।
यह प्रकरण इसलिये दिया गया है, जिससे विभिन्न शैलियों के प्राचीन मंदिरों के काल-निर्णय करने में पाठकों को मार्गदर्शक तत्त्वों की जानकारी हो सके । तीर्थंकर चौबीस हैं। प्रत्येक तीर्थकर का एक चिन्ह है, जिसे लांछन कहा जाता है। तीर्थकर-मूर्तियां
प्रायः समान होती हैं। केवल ऋषभदेव की कुछ मूतियों के सिर पर जटायें पाई जाती हैं तीपंकरों के चिन्ह तथा पार्श्वनाथ की मूतियों के ऊपर सर्प-फण होता है । सुपार्श्वनाथ की कुछ मूर्तियों के सिर
के ऊपर भी सर्प-फण मिलते हैं। पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ के सर्प-फणों में साधारण सा
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–मन्दिरों के विकास-प्रकरण में प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी के विभिन्न लेखों और डॉ. भाग चन्द की 'देवगढ़' पुस्तक से सहायता ली गई है। इसके लिये दोनों विद्वानों के प्रति हम प्राभारी हैं।
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