________________
तीर्थंकर मौर प्रतीक पूजा
२१
बलराम और कृष्ण खड़े हैं। दोनों ही द्विभुजी हैं। दूसरी प्रतिमा में ध्यानमग्न नेमिनाथ के एक ओर शेषनाग के भवतार के रूप में चतुर्भुजी बलराम खड़े हैं। उनके विरपरका प्रतीक फग-मण्डन है। दूसरी ओर विष्णु के अवतार के रूप में चतुर्भुजी कृष्ण खड़े हैं। उनके हाथों में चक्र, पद्म आदि सुशोभित हैं। तीसरी मूर्ति अर्धभग्न हैं । इसमें नेमिनाथ ध्यानावस्थित हैं । एक ओर बलराम खड़े हैं। उनका हल मुशल उनके कन्धे पर विराजित है । इन मूर्तियों की प्राप्ति पुरातत्त्व को महान् उपलब्धि मानी जाती है। इससे नारायण कृष्ण को ऐतिहासिकता के समान उनके चचेरे भाई भगवान नेमिनाथ को ऐतिहासिक महापुरुष मानने में कोई संदेह नहीं रह जाता ।
इस काल में तीर्थकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त प्रायागपट्ट, स्तुप, यक्ष-यक्षी, अजमुख हरिर्नंगमेशी, सरस्वती, सर्वतोभद्रका प्रतिमा, मांगलिक चिन्ह, धर्मचक्र, चैत्यवृक्ष आदि जनकला की त्रिविध कृतियों का भी निर्माण हुआ । इन कलाकृतियों के वैविध्य और प्राचुर्य से प्रभावित कुछ विद्वान् तो यह भी मानने लगे हैं कि जैन मूर्ति पूजा का प्रारम्भ हो मथुरा से हुआ है । यद्यपि यह सर्वाशितः सत्य नहीं है क्योंकि जैन मूर्तियों और जैन मूर्ति पूजा के प्रमाण इससे पूर्वकाल में भी उपलब्ध होते हैं। इतना अवश्य माना जा सकता है कि जैन धर्म का प्रचार करने और उसे लोकप्रिय बनाने में मथुरा की जैन कला का विशेष योगगन रहा है ।
मथुरा की तीर्थकर मूर्तियों के अध्ययन से एक परिणाम सहज हो निकाला जा सकता है । दिगम्बरश्वेताम्बर सम्प्रदाय-भेद यद्यपि ईसा से तीन शताब्दी पूर्व हो चुका था, किन्तु उसका कोई प्रभाव मथुरा की तीर्थंकर मूर्तियों पर नहीं दिखाई पड़ता । यहाँ तक कि श्वेताम्बरों द्वारा प्रतिष्ठित तीर्थकर प्रतिमायें भी दिगम्बर हो बनाई जाती थीं। और यह क्रम उत्तर मध्य काल तक चलता रहा ।
कुषाणकालीन तीर्थकर प्रतिमाओं के साथ यक्ष-यक्षो भी प्राप्त नहीं होते । प्रतिमाओं के आजू बाजू खड़े चमर घारी यक्षों का भी प्रभाव मिलता है। इन यक्षों के स्थान पर इस काल की प्रतिमाओ में दाता, उपासक, उनकी पत्नी, सुनि और ग्रायिकाओं का श्रंकन मिलता है। जिन प्रतिमा के सिहासन के दोनों कोनों पर एक-एक सिंह और बीच में धर्मचक्र अंकित होता है जिसके दोनों ओर मुनि, अजिंका, श्रावक और श्राविका अंकित रहते हैं ।
कुषाण काल के पश्चात् गुप्त काल में जैन मूर्ति कला का बहुत निखार हुआ। इस काल को मूर्तियों में सौन्दर्य पर विशेष ध्यान दिया गया। मूर्ति के अलंकरण पर बल दिया गया । श्रव मूर्तियों पर श्रीवत्स, लांखन और अप्ट प्रातिहार्य की योजना भी की जाने लगी । द्विमूर्तिकार्य, त्रिमूर्तिकार्य, सर्वतोभद्रिका, चतुविशति तीर्थकर प्रतिमायें, तीन चौवीसी, सहस्रकूट स्तम्भ आदि की संरचना होने लगी। मूर्तियों के कंशकुन्तल अत्यन्त कलापूर्ण बने । आदिनाथ के जटाजूटों के नानाविध रूप उभरे। इस काल में तीर्थकरों के अतिरिक्त, तीर्थंकर-भाता, तीर्थकरों के सेवक-सेविका के रूप में यक्ष-यक्षियों, विद्या देवियों, पंचपरमेष्ठियों, भरत - बाहुबली की मूर्तियों का निर्माण भी प्रचुरता से हुआ । इनके अतिरिक्त ग्रष्ट मंगलद्रव्य, श्रष्ट प्रातिहार्य, सोलह स्वप्न, नवग्रह, नवनिधि, मकरमुख, कीर्तिमुख, कीचक, गंगा-यमुना, नाग-नागी आदि के अंकन की परम्परा भी विकसित हुई। इस काल में देवी- मूर्तियों के अलंकरण और उनकी साज-सज्जा पर विशेष ध्यान दिया गया। कुछ देवियाँ हिभुजी, चतुर्भुजी, षड्भुजी दशभुर्जी, बारहभुजी, विशंतिभुजी और चतुर्विंशतिभुजी भी मिलती हैं। देवगढ़ की विकसित मूर्ति कला गुप्तकाल की ही देन है ।
गुप्तकाल के पश्चात् गुर्जर प्रतिहार काल में तथा कलचुरि काल में श्वेताम्बर परम्परा की तीर्थकरप्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया । इससे पूर्व तक श्वेताम्बर प्रतिमानों का विशेष प्रचलन नहीं मिलता । सभी जंन प्रतिमायें दिगम्बर रूप में ही बनाई जाती थीं ।
इस प्रकार जैन मूर्तियों के रूप, शिल्प विधान और उनकी संरचना का एक क्रमबद्ध इतिहास मिलता है । इसमे उत्खनन में प्राप्त जैन मूर्तियों के काल-निर्णय में बहुत सहायता प्राप्त हो सकती है ।
मन्दिरों का निर्माण कब प्रारम्भ हुआ, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है । पुरातात्विक साक्ष्यों के