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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
वेडौल यक्ष-मूर्तियों मिली हैं । यह कहा जा सकता है कि मृमूर्तियों में तो कला के दर्शन होते हैं, किन्तु इन प्रारम्भिक यक्ष-प्रतिमाओं में कला नाम की कोई चीज नहीं मिलती। मगमूर्तियों में कला का विकास शन: शनै: हुमा । इसलिए पाषाण-मूर्तियों के प्रारम्भिक निर्माण-काल में भी मृण्मूर्तियों में वैविध्य के दर्शन होते हैं। स्त्री-पुरुषों के अलंकृत केश-विन्यास, पशु-पक्षियों के रूप, पंचशर कामदेव, विभिन्न मुद्राओं में स्त्रियों के नानाविध रूप इन मृण्मूर्तियों की विशेषता है । दूसरी और पाषाण-मूतियों प्रारम्भ में अविकसित रूप में दीख पड़ती है।
___ पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत में लोहानीपुर (पटना का एक मुहल्ला) में नाला खोदते समय जो तीर्थकर-प्रतिमा उपलब्ध हुई है, वह भारत का भूतिया में प्राचीनतम है। यह आजकल पटना म्यूजियम में सुरक्षित है। इसका सिर नहीं है । कहनियों और घुटनों से भी खण्डित है। किन्तु कन्धों और वाहों की मुद्रा से यह खड़गासन सिद्ध होती है तथा इसकी चमकीली पालिश से इसे मौर्यकाल (३२०-१८५ ई० पू०) की माना गया है । हड़प्पा में जो खण्डित जिनप्रतिमा मिलो है, उससे लोहानीपुर की इस जिन-प्रतिमा में एक अद्भुत सादृश्य परिलक्षित होता है। और इसी सादृश्य के प्राधार पर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय मूर्ति-कला का इतिहास वर्तमान मान्यता से कहीं अधिक प्राचीन है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि देव-मूर्तियों के निर्माण का प्रारम्भ जनों ने किया । उन्होंने ही सर्व प्रथम तीर्थकर-मूर्तियों का निर्माण करके धार्मिक जगत को एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्हीं के अनुकरण पर शिव-मूर्तियों का निर्माण प्रा। विष्णु, बुद्ध प्रादि की मूर्तियों के निर्माण का इतिहास बहत पश्चात्कालीन है।
एक अन्य मूर्ति के सम्बन्ध में उदयगिरि को हाथीगुफा में एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख के अनुसार कलिग नरेश खारवेल मगध नरेश वहसतिमित्र को परास्त करके छत्र-भगारादि के साथ 'कलिंग जिन ऋषभदेवको मति वापिस कलिंग लाये थे जिसे नन्द सम्राट कलिग से पाटलिपुत्र ले गये थे। सम्राट खारवेल ने इस प्राचोन मूर्ति को कुमारी पर्वत पर अर्हत्प्रासाद बनवाकर विराजमान किया था। इस ऐतिहासिक शिलालेख की इस सूचना को अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है । इसके अनुसार मौर्य काल से पूर्व में भी एक मूर्ति थी, जिसे 'कलिंगजिन' कहा जाता था। 'कलिग-जिन' इस नाम से ही प्रगट होता है कि सम्पूर्ण कलिंगवासी इस मूर्ति को अपना अाराध्य देवता मानते थे । नन्द सम्राट इसे अपने साथ केवल एक ही उद्देश्य से ले गये थे और वह उद्देश्य था कलिग का अपमान । लगभग तीन शताब्दियों तक कलिंगवासी इस अपमान को भूले नहीं और अपने राष्ट्रीय अपमान का प्रतिकार कलिंग सम्राट खारवेल ने किया । वह मगष को विजय करके अपने साथ अपने उस राष्ट्र-देवता की मूर्ति को वापिस ले गया। किन्तु यह कितने प्राश्चर्य की बात है कि अबतक एक भी पूरातत्त्व वेत्ता और इतिहासकार ने इस ऐतिहासिक मति के सम्बन्ध में कोई खोज नहीं की । आखिर ऐसी ऐतिहासिक मति कुमारी पर्वत से कब किस काल में किसने कहाँ स्थानान्तरित कर दी? यदि यह मूति उपलब्ध हो जाय तो इससे लोहानीपूर की मूर्ति को प्राचीनतम मानने वाले पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत को न केवल असत्य स्वीकार करना पड़ेगा, वरन मुति-निर्माण का इतिहास और एक-दो शताब्दी प्राचीन मानना होगा । कुछ अनुसन्धानकर्ता विद्वानों की धारणा है कि जगन्नाथपुरी की मूर्ति ही वह 'कलिंग जिन' मूर्ति है । किन्तु इस सम्बन्ध में अभी साधिकार कुछ कहा नहीं जा सकता।
इसके पश्चात् शक-कुशाण काल में मूति कला का दूत वेग से विकास हुआ। इस काल में भी सर्व प्रथम तीर्थकर-मतियों का निर्माण प्रारम्भ हुया । मथरा इस कार मूर्ति-कला का केन्द्र था। तीर्थकर-मूर्तियों में भी अधिकांशतः पद्मासन ही बनाई जातो थीं। इस काल में तीर्थंकर-मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स, लांछन और अष्ट प्रातिहार्य का प्रचलन प्रायः नहीं दीखता। तीर्थकर-मूर्तियों में अलंकरण का भी अभाव था। मूर्तियों की चरणचौकी पर अभिलेख अंकित करने की प्रथा का जन्म हो चुका था। जिस बौद्ध स्तुप को चर्चा ऊपर पा चुकी है, उसकी सूचना भी भगवान मुनिमुब्रतनाथ को चरण-चौकी के अभिलेख में ही मिलती है। इस काल की तीर्थकर. प्रतिमाओं का अध्ययन करने पर एक बात की ओर ध्यान आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता । ईसा की इन प्रथम द्वितीय शताब्दियों में भी प्रादिनाथ, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, पाश्वनाथ, महावीर प्रादि तीर्थकरों के समान जनता में नेमिनाथ की भी मान्यता बहुप्रचलित थी। इस काल की भगवान नेमिनाथ की तीन प्रतिमायें विभिन्न स्थानों से उपलब्ध हुई हैं । एक में नेमिनाथ पद्मासन लगाये ध्यान-मुद्रा में अवस्थित हैं और उनके दोनों ओर