________________
१८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
पर देव मूर्ति स्थापित की जाती थी। उसके चारों ओर वेदिका (दाङ) का निर्माण होता था। धीरे धोरे वेदिका को ऊपर से श्राच्छादित किया जाने लगा । यही देवायतन, देवालय या मन्दिर कहे जाने लगे। प्रारम्भ में ये देवायतन सीधे सादे रूप में बनाये जाते थे । पुरातत्त्वावर्शनों में कई मूर्तियों, सिक्कों, मुद्राओं आदि पर देवायतनों का अंकन मिलता है। उससे ही ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में मन्दिरों का रूप अत्यन्त सादा था । कालान्तर में कलात्मक रुचि अभिवृद्धि के साथ साथ देवायतनों के स्वरूप में विकास होता गया । मूर्ति स्थापना के स्थल पर गर्भगृह को परि वेष्टित करने के अतिरिक्त उसके बाहर चारों ओर प्रदक्षिणापथ का निर्माण हुआ। गर्भगृह के बाहर आच्छादित प्रवेशद्वार या मुख मण्डप का निर्माण हुआ। धीरे धीरे गर्भगृह के ऊपर शिखर तथा बाहर मण्डप, अर्धमण्डप, महामण्डप आदि का विधान हुआ । गुप्तकाल में आकर मन्दिर शिल्प और मूर्ति शिल्प के शास्त्रों की रचना भी होने लगी, जिनके आधार पर मन्दिर और मूर्तियों की रचना सुनियोजित ढंग से होने लगी ।
प्रागैतिहासिक काल के पूर्व पाषाण युग में, जिसे जैन शास्त्रों में भोगभूमि बताया है, मानव अपनी जीवनरक्षा के लिए वृक्षों पर निर्भर था, वृक्षों से ही अपने जीवन की सम्पूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करता था । कुलकरों के काल में मानव की बुद्धि का विकास हुआ और उस काल में मानव को जीवन रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ा। अतः जीवन-रक्षा के कुछ उपाय ढूंढ़ने को वाध्य होना पड़ा । छुटपुट रहने के स्थान पर कबीलों के रूप में रहने की पद्धति अपनाई गई । किन्तु इस काल में भी वृक्षों की निर्भरता समाप्त नहीं हुई, बल्कि वृक्षों के कारण कबीलों में पारस्परिक संघर्ष भी होने लगे । प्रकृति में तेजी से परिवर्तन हो रहे थे । वृक्ष घट रहे थे, मानव की श्रावश्यकतायें बढ़ रही थीं। कुलकरों ने वृक्षों का विभाजन और सीमांकन कर दिया। किन्तु फल वाले वृक्षों की संख्या कम होते जाने से जीवन-यापन की समस्या उठ खड़ी हुई । वन्य पशुओं से रक्षा के लिए सुरक्षित श्रावास की आवश्यकता भी अनुभव की जाने लगी थी । "तब ऋषभदेव का काल श्राया। इसे नागरिक सभ्यता का काल कहा जा सकता है 1 इस काल में तीर्थंकर ऋषभदेव ने जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने की प्रेरणा दी और मानव समाज को प्रसि, मसि, कृषि विद्या, वाणिज्य और शिल्प की शिक्षा दी । इन्द्र ने अयोध्या नगरी की रचना की। भवन निर्माण करने की विद्या बताई, जिससे भवनों का निर्माण होने लगा। इस काल में संघटित जीवन की परम्परा प्रारम्भ हुई, जिसने ग्रामों, पुरों, नगरों को जन्म दिया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और जीवन की प्रत्येक आवश्यकता पूर्ति के लिए ऋषभदेव ने जो विविध प्रयोग करके मानव समाज को बताये और उसे व्यवस्थित नागरिक जीवन बिताने की जो शिक्षा दी, उसके कारण तत्कालीन सम्पूर्ण मानव समाज ऋषभदेव के प्रति हृदय से कृतज्ञ था। और जब ऋषभदेव ने संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली तथा दिगम्बर निर्ग्रन्थ सुनि के रूप में घोर तप करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया, उसके पश्चात् समवशरण में, गन्धकुटी में सिहासन पर विराजमान होकर उन्होंने धर्म देशना दी। मानव समाज के लिए वह धर्म देशना अश्रुतपूर्व थी, समवशरण की वह रचना श्रदृष्टपूर्व थी। उनका उपदेश कल्याणकारक था, हितकारक था, सुखकारक था और शान्तिकारक था । इससे सम्पूर्ण मानव समाज के मन में तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति की अजस्त्र धारा बहने लगी। वे सम्पूर्ण मानव समाज के प्राराध्य बन गये और उसके मन में समवशरण की प्रतिकृति बनाकर उसमें ऋषभदेव की तदाकार मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करने की ललक जागृत हुई । इन्द्र ने अयोध्या का निर्माण करते समय नगर की चारों दिशाओं में गौर नगर के मध्य में पांच देवालयों या जिनायतनों की रचना करके जिनायतनों का निर्माण करने और उसमें मूर्ति स्थापना करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था ।
मन्दिर निर्माण को पृष्ठभूमि
एक बार जब सम्राट भरत कैलाश गिरि पर भगवान ऋषभदेव के दर्शन करके अयोध्या लौटे तो उनका मन भगवान की भक्ति से श्रोतप्रोत था । उन्होंने भगवान के दर्शन की उस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए कैलाश शिखर के आकार के घण्टे बनवाये और उन पर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का अंकन कराया। ये घण्टे 'नगर के चतुष्पथों, गोपुरों, राजप्रासाद के द्वारों भोर ड्यौड़ियों में लटकाये। यह मानवकृत प्रथम मतदाकार प्रतीक स्थापना थी !