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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
कल में उत्पन्न हुए और कुमार अवस्था में ही मुनि-दीक्षा ली । इन्होंने न तो विवाह किया, न इनका राज्याभिषेक हा। शेष सभी तीर्थकरों का विवाह तथा राज्याभिषेक हुना । पीछे उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की।
'ण य इत्थियाभिमेना' का अर्थ टिप्पणी में लिखा है---'स्त्री पाणिग्रहण इत्यादि रहिता इत्यर्थः अर्थात स्त्री-पाणिग्रहण और राज्याभिषेक में रहित उक्त पांच तीर्थकर थे।
यावश्यक नियुक्तिकार की इस मान्यता के अनुसार ही स्थानांग, समवायांग, भगवती प्रादि सूत्रों में भी इन पांच तीर्थकरी के विवाह का बलम्ब नहीं किया है । ममवायांग सूत्र (नं०१६) में प्रागारबास का उल्लेख करते हार १४ तीर्थकरों का घर में रहकर श्री मोगमा कर दीक्षित हावाबनलाया है। टीकाकार अभयदेव सूरि ने अपनी वृत्ति में 'गेपास्तु पंचत्रमार भाव पवे याह च वाक्य के साथ 'वीरं अरिद्वणमी' नामक गाथा उद्धृत की है। 'स्थानांग' सूत्र के ४७६ व नुत्र में भी पाच नोर्थकों को कुमार प्रवजित कहा है। 'अावश्यक नियुक्ति' की २४८ वी गाथा में भी इसी यागय को मात्र किया है। बह गाथा इस प्रकार है
'वीरो रिटुणेमी पासो मल्लियासुपुज्जो य। पढमवए पब्बइया सेसा पृण पच्छिमवयं सि ॥
इस गाथा की टीका करने हा टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है-'प्रथम वयसि कुमारत्वलक्षणे प्रवजिताः शेषा पुनः ऋषभस्वामि प्रभनयो मध्यमे बर्यास यौवनत्वलक्षणे वर्तमानाः प्रनजिताः।
यद्यपि इन सत्रग्रन्थों में इन पांच तीर्थंकरों को स्पष्ट रूप से कुमार स्वीकार किया है तथा शेष तीर्थंकरों को घर में रहकर और भोग भोगकर दीक्षित होना लिखा है, जिसका अर्थ है कि उन पांच तीर्थंकरों ने भोग नहीं भोगे । किन्तु पश्चाद्वर्ती श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों-कल्पसूत्र, यावश्यक भाष्य, प्राचारोग आदि में पार्श्वनाथ और महावीर को विवाहित माना है, तथा वासुपूज्य, मल्लिनाथ और नेमिनाथ को बिना विवाह किये दीक्षित होना माना है।
__ आचार्य हेमचन्द्र त्रिपष्ठिशलाकापुरुष-चरित' के वासुपूज्य-चरित्र में उल्लिखित पांच तीर्थकरों में से महावीर के सिवाय चार को अविवाहित कहते हैं। यथा--
महिलनेमिः पाच इति भाविनोऽपि त्रयो जिनाः। अकृतोद्धाह साम्राज्याः प्रव्रजिष्यन्ति मुक्तये ॥१०३॥ श्री वीरश्चरमश्चाहन्नीषभोग्येन कर्मणा। कृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्रजिष्यति सेत्स्यति ॥१०४॥
परन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ चरित पर्व ६ सर्ग ३ में हेमचन्द्र पार्च को विवाहित सूचित करते हैं। इस पर्व के २१० वें श्लोक का एक चरण इस प्रकार है-'उदवाह प्रभावतीम'
इससे ऐसा लगता है कि हेमचन्द्र को इस सर्ग की रचना करते समय अपनी पूर्व स्थापना का स्मरण नहीं रहा तथा उनके समक्ष कोई दूसरी भी परम्परा विद्यमान थी। उस परम्परा के अनुसरण के प्राग्रह के कारण ही उन्होंने पार्श्वनाथ का विवाह प्रभावती के साथ होना स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों के विवाह के सम्बन्ध में दो मान्यतायें प्रचलित रहीं हैं।