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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
अन्तर मिलता है । सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर पांच फण होते हैं और पार्श्वनाथ को मूर्तियों के सिर के ऊपर सात, नौ, ग्यारह अथवा सहस्र सर्प-फण पाये जाते हैं। इन तीर्थकरों के अतिरिक्त शेष सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों में कोई मन्तर नहीं होता। उनकी पहचान उनको चरण-चौकी पर अंकित उनके चिन्हों से ही होती है। चिन्ह न हो तो दर्शक को पहचानने में बड़ा भ्रम हो जाता है । कभी कभी तो लांछनरहित मूर्ति को साधारण जन चतुर्थकाल की मान बैठते हैं, जबकि वस्तुतः धोवत्स लांछन और प्रष्ट प्रातिहार्य से रहित मूर्ति सिद्धों की कही जाती है । इसलिये मूर्ति के द्वारा तीर्थकर की पहचान करने का एकमात्र साधन तीर्थ कर-प्रतिमा की चरण-चौकी पर अंकित उसका चिन्ह ही है। इसलिये तीर्थकर-मूर्ति-विज्ञान में चिन्ह या लांछन का अपना विशेष महत्त्व है ।
इन चौवीस तीर्थंकरों के चिन्ह निम्न प्रकार हैं
ऋषभदेव का वृषभ, अजितनाथ का हाथी, संभवनाथ का प्रश्व, अभिनन्दननाथ का बन्दर, सुमतिनाथ का चक्रवाक पक्षी, पद्मप्रभु का कमल, सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक, चन्द्रप्रभ का अर्धचन्द्र, पुष्पदन्त का मगर, शीतलनाथ का श्री वृक्ष, श्रेयान्सनाथ का गंडा, वासुपूज्य का महिष, विमलनाथ का शूकर, अनन्तनाथ का सेही, धर्मनाथ का बच्चदण्ड, शान्तिनाथ का हिरण, कुन्थुनाथ का बकरा, अरनधि का मछली, मल्लिनाथ का कलश, मुनिसुव्रतनाथ का कछुमा, नमिनाथ का नीलकमल, नेमिनाथ का शंख, पार्श्वनाथ का सर्प और महाबीर का सिंह लांछन था।
ये चिन्ह दाहिने पैर के अंगूठे में होते हैं। इन चिन्हों के सम्बन्ध में विचारणीय बात यह है कि इन चिन्हों का कारण क्या है ? ये तीर्थकर-प्रतिमानों पर कबसे और क्यों उत्कीर्ण किये जाने लगे? इस सम्बन्ध में शास्त्रीय दृष्टिकोण क्या है ?
इस सम्बन्ध में शास्त्रों विभिन्न मत पाये जाते हैं। यहां उनमें से कुछ देना उपयुक्त होगा।
इन्द्र भगवान के अभिषेक के समय उनके शरीर पर जिस वस्तु को रेखाकृति देखता है, उसी को उनका लांछन घोषित कर देता है।
–हेमचन्द्र, अभिधान चिन्तामणि, काण्ड १२ श्लोक ४७-४८
-~-२० प्राशाधर, अनगार धर्मामृत ८.४१ अम्मण काले जस्स दु वाहिण पायम्मि होय जो बिव्हं।।
तं लपखण पाउत प्रागमसुप्त सजिण बेहे ॥ अर्थात् तीर्थंकर के दांये पैर के अंगूठे पर जन्म के समय इन्द्र जो चिन्ह देखता है, इन्द्र उसी को उनका लाछन निश्चित कर देता है।
-त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृ० ५६ इन्हीं से मिलते जुलते विचार अन्य प्राचार्यो के भी हैं।
मूर्ति निर्माण के प्रारम्भिक काल में मूर्तियों पर लांछन उत्कीर्ण करने की परम्परा नहीं रही। लोहानीपुर की मौर्यकालीन या शक-कुषाण कालीन मूर्तियों पर लांछन नहीं पाये जाते। बाद के काल में लांछनों के अंकन की परम्परा प्रारम्भ हुई और इनका अंकन मूर्ति के पाद-पीठ पर किया जाने लगा। जैन प्रतीकों में मन्दिरों में प्रायः निम्नलिखित प्रतीक उपलब्ध होते हैं-आयागपद्र, स्त
नन्यावर्त, चैत्यस्तम्भ, चत्यवृक्ष, श्रीवत्स, सहस्रकूट, चैत्य, सर्वतोभद्रिका, द्विमूर्तिका, त्रिमूर्तिका बैन प्रतीकों का विरस्न, अष्टमंगल, अष्ट प्रातिहार्य, सोलह स्वप्न, नवनिधि, नवग्रह, मकरमुख, शार्दूल, कीर्ति
परिचय मुख, कीचक, गंगा-यमुना, नाग-नागी, चरण, पूर्णघट, शराव सम्पुट, पुष्पमाल, मानगुच्छक सर्प, जटा, लांछन, पद्मासन, खड़गासन, यक्ष-यक्षी
मायागपट्ट-वर्गाकार या मायताकार एक शिलापट्ट होता है, जो पूजा के उद्देश्य से स्थापित किया जाता या । इस पर कुछ जैन प्रतीक उत्कीर्ण होते थे। कुछ पर मध्य में तीर्थकर-मूति भी होती थी। बुहलर के पनुसार पहंतों की पूजा के लिए स्थापित पूजापट्ट को मायाग पट्ट कहते हैं । ये स्तूप के चारों द्वारों में से प्रत्येक के सामने स्थापित किये जाते थे।