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३-तीर्थकर और प्रतीक-पूजा
जन-मानस में तीर्थकरों के लोकोत्तर व्यक्तित्व की छाप बहत गहरी रही है। उन्होंने जन-जन के कल्याण और उपकार के लिए जो कुछ किया, उस अनुग्रह को जनता ने बड़ी श्रद्धा के साथ स्वीकार किया । जब जो तीर्थकर विद्यमान थे, उनकी भक्ति, पूजा और उपदेश श्रवण करने के लिए जनता का प्रत्येक वर्ग उनके चरण-सान्निध्य में पहुंचता था और वहाँ जाकर अपने हृदय की भक्ति का अर्घ्य उनके चरणों में समर्पित करके अपने आपको धन्य मानता था। किन्तु जब उस तीर्थकर का निर्वाण हो गया, तब जनता का मानस उनके अभाव को तीव्रता के साथ अनुभव करता और अपनी भक्ति के पुष्प समर्पित करने को प्राकुल हो उठता था। जनता के मानस की इसी तीव्र अनुभूति ने प्रतीक-पूजा की पद्धति को जन्म दिया।
प्रतीक दो प्रकार के रहे-मतदाकार और तदाकार । ये दोनों ही प्रतीक अविद्यमान तीर्थकरों की स्मृति का पुनर्नवीकरण करते थे और जन-मानस में तीर्थकरों के आदर्श की प्रेरणा जागृत करते थे। इन दोनों प्रकार के प्रतीकों में शायद अतदाकार प्रतीकों की मान्यता सर्व प्रथम प्रचलित हुई। ऐसा विश्वास करने के कुछ प्रबल कारण हैं। सर्व प्रथम प्राधार मनोवैज्ञानिक है । मानव की बुद्धि का विकास क्रमिक रूप से ही हुआ है । प्रतीकों का जो रूप वर्तमान में है, वह सदा काल से नहीं रहा। हम आगे चलकर देखेंगे कि तदाकार मुति-शिल्प में समय, वातावरण
और बुद्धि-विकास का कितना योगदान रहा है। प्रतदाकार प्रतीक से ही तदाकार प्रतीक की कल्पना का जन्म संभव हो सकता है। दूसरा प्रबल कारण है पुरातात्विक साक्ष्य । पुरातात्त्विक साक्ष्य के आधार पर यह माना गया है कि नदाकार प्रतीक के रूप (मन्दिर और मूर्ति के रूप में) बहुत अधिक प्राचीन नहीं हैं और वे हमें ईसा पूर्व की सात-आठ शताब्दियों से पूर्व काल तक नहीं ले जाते, बबकि अतदाकार प्रतीक इससे पूर्व के भी उपलब्ध होते हैं। यदि हडप्पाकाल की शिरविहीन ध्यानमग्न मूर्ति को निर्विवाद रूप से तीर्थकर प्रतिमा होने की स्वीकृति हो जाती है तो तदाकार प्रतीक का काल ईसा पूर्व तीन सहस्राब्दी स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु इसके साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि उस काल में भी तदाकार प्रतीकों का वाहल्य नहीं था। एक शिरोहीन मति तथा का मद्रानों पर अंकित ध्यानलीन योगी जिन के रूपांकन के अतिरिक्त उस काल में विशेष कुछ नहीं मिला। ऐसी स्थिति में यह भी विचारणीय है कि हड़प्पा संस्कृति अथवा सिन्धु सभ्यता के काल से मौर्य काल तक के लम्बे अन्तराल में तदाकार प्रतीक-विधान की कोई कला-वस्तु क्यों नहीं मिली? इसका एक ही बुद्धिसंगत कारण हो सकता है कि तदाकार प्रतीक-विधान का विकास तब तक नहीं हो पाया और उसने पर्याप्त समय लिया ।
जैनधर्म के प्रलदाकार प्रतीकों में स्तूप, त्रिरत्न, चैत्यस्तम्भ, चैत्यवृक्ष, पूर्णघट, शराच सम्पुट, पुष्पमाला, पुष्पपडलक आदि मुख्य हैं। प्रष्ट मगल द्रव्य-यथा स्वस्तिक, धर्मचक्र, नन्द्यावन, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, मीनयुगल, पदम और दर्पण-तथा तीर्थंकरों के लांछन भी अतदाकार प्रतीकों में माने गये हैं। अष्ट प्रातिहार्य एवं पायापद भी महत्त्वपूर्ण प्रतीक माने गये हैं। कला के प्रारम्भिक काल में इन प्रतदाकार प्रतीकों का पर्याप्त प्रचलन रहा है।
किन्तु जैसे-जैसे कला-बोध विकसित हुमा, त्यों-त्यों प्रतीक की तदाकारता को अधिक महत्त्व मिलने लगा । इसी काल में तीर्थंकरों की तदाकार मूर्तियों का निर्माण होने लगा। प्रारम्भ में प्रकृत भूमि से कुछ ऊंचे स्थान