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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद
बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ?
१६ उत्तर-हे माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है। यथामूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये । जिस प्रकार ज्ञानावरणीय का दण्डक कहा गया है, उसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म तक दण्डक कहना चाहिये।
विवेचन-द्रव्यबन्ध के आगम, नोआगम आदि के भेद से अनेक प्रकार हैं, किन्तु यहां केवल उभय व्यतिरिक्त द्रव्यवन्ध का ग्रहण है । रस्सी आदि के द्वारा बांधना अथवा द्रग्य का परस्पर बन्ध होना-द्रग्य-बन्ध कहलाता है । भाव-बन्ध के आगमत: और नो आगमतः ये दो भेद हैं। उनमें से यहाँ नोआगमत: भावबन्ध का ग्रहण किया गया है । भाव के द्वारा अर्थात् मिथ्यात्वादि के द्वारा अथवा उपयोग भाव से अतिरिक्त भाव का जीव के साथ बन्ध होना, भावबन्ध कहलाता है। .. जीव के प्रयोग से द्रव्यों का बन्ध होना 'प्रयोगबन्ध' कहलाता है और स्वाभाविक रूप से बन्ध होना 'विस्रसा बन्ध' कहलाता है । इसके दो भेद हैं । बादलों आदि का बन्ध 'सादि विस्रसा बन्ध' कहलाता है । धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर बन्ध, 'अनादि विस्रसा बंध' कहलाता है ।
प्रयोग बन्ध के दो भेद हैं । घास के पुले आदि का बन्ध 'शिथिल' बन्ध है और रथ-चक्रादि का बन्ध 'गाढ' बन्ध है। भाव-बन्ध के दो भेद है- मूल प्रकृति बन्ध और उत्तर प्रकृति बन्ध । मूल प्रकृति बन्ध के ज्ञानावरणीयादि आठ भेद हैं । उत्तर प्रकृति बन्ध के १४८ भेद हैं । ..
पाप-कर्म में भेद १७ प्रश्न-जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जाव जे य कजिस्सइ, अत्थि याइ तस्स केइ णाणते ?
१७ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जीवाणं पावे कम्मे जे यकडे,
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