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भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेंद्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति
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सेणं चतारि पुब्बकोडी ओ चउहिं अंतोमुहत्तेहिं अमहियाओ ८ ।
भावार्थ-४३ यदि वही मनष्य, जघन्य स्थिति वाले पंचेंद्रिय तिर्यच में उत्पन्न हो, तो भी इसी प्रकार । कालादेश से जघन्य अतर्महर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अतर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि ८ ।
___ ४४-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई, उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाई, एस चेव लद्धी जहेव सत्तमगमे । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडीए अमहियाई, उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाइं पुष्वकोडीए अभहियाई-एवइयं ९ ।
भावार्थ-४४ यदि वही मनुष्य उत्कृष्ट काल को स्थिति वाले पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न होता है, सातवें गमकवत् । भवादेश से दो भव तथा कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट पूवकोटि अधिक तीन पल्योपम काल तक यावत् गमनागमन करता है ९ ।
विवेचन-असंज्ञी मनुष्य के विषय में केवल पहला, दूसरा और तीसरा-ये तीन गमक ही कहे हैं, इसका कारण यह है कि असंज्ञी मनुष्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होने से, तीन गमक ही बनते हैं । शेष छह गमक नहीं बनते ।
.. असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य देव में ही उत्पन्न होते हैं, तिथंच आदि में नहीं।
तियंच के तीसरे गमक में अवगाहना और स्थिति के विषय में जो विशेषता बताई गई है, इससे यह स्पष्टता होती है कि अंगुल-पृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) से कम अवगाहना वाला और मास-पृथक्त्व (दो मास से नौ मास तक) से कम स्थिति
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