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भगवती सूत्र-२४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति
१९-सो चेव उक्कोसकालढिईएसु उववष्णो एस चेव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अमहियाईएवइयं० ३ । एए चेव तिण्णि गमगा, सेसा ण भण्णंति। "
* 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' तिॐ
॥ चउवीसइमे सए एकवीसइमो उद्देसो समत्तो ॥
भावार्थ-१९-यदि वह सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न हो, तो उसके लिये भी यही वक्तव्यता है । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम ३ । यहां ये तीन गमक कहने चाहिये । शेष छह गमक नहीं बनते हैं। ,
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-मनुष्य में उत्पन्न होने वाले असुरकुमार देव से ले कर ईशान देव तक की वक्तव्यता के लिये पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच उद्देशक का अतिदेश किया है, क्योंकि दोनों की वक्तव्यता समान है। सनत्कुमार आदि की वक्तव्यता में विशेषता है । अतः उनका कथन पथक किया है। जब औधिक या उत्कृष्ट स्थिति के देव, औधिक आदि मनुष्य में उत्पन्न होते हैं, तब उत्कृष्ट स्थिति और संवैध का कथन करने के लिये चार मनुष्य भव . और चार देव भव की स्थिति को जोड़ना चाहिये । आनत आदि देवों में उत्कृष्ट छह भव होते हैं । इसलिये वहाँ तीन मनुष्य भव और तीन देवभवों की स्थिति को जोड़ कर संवेध करना चाहिये।
कल्पातीत देव में लब्धि की अपेक्षा पाँच समुद्घात होती है, किन्तु वैक्रिय और तेजस् समुद्घात उन्होंने कभी की नहीं, करते भी नहीं और करेंगे भी नहीं, क्योंकि इनका उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है।
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