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भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति
सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, वे गर्भज मनुष्य में ही आते हैं और संख्यात ही होते हैं, असंख्यात नहीं।
रत्नप्रभा पृथ्वी से निकल कर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने वालों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है । इसलिये वहाँ अन्तर्मुहूर्त के साथ संवेध किया गया था, किन्तु मनुष्य प्रकरण में जघन्य स्थिति मास-पृथक्त्व होती है, अतः मास-पृथक्त्व के साथ संवेध करना चाहिये।
___ शर्कराप्रभा आदि की वक्तव्यता पंचेन्द्रिय तिर्यंच उद्देशक के अनुसार जाननी चाहिये। वह भावार्थ में कही है।
३ प्रश्न-जइ तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति ?
३ उत्तर-गोयमा ! एगिदियतिरिक्खजोणिए० भेदो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए, णवरं तेउवाऊ पडिसेहेयव्वा, सेसं तं चेव । जाव
कठिन शब्दार्थ-पडिसेहेयव्वा-निषेध करना चाहिये ।
भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि जीव, तिर्यंच-योनिक से आ कर मनुष्य में उत्पन्न होता है, तो एकेन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय तिथंच से आता है ?
३ उत्तर-हे गौतम ! एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक इत्यादि पञ्चेन्द्रिय तिथंच उद्देशक के अनुसार, किंतु तेउकाय और वायुकाय का निषेध करना चाहिये (क्योंकि इनसे आ कर मनुष्य में उत्पन्न नहीं होता) शेष पूर्ववत् ।
४ प्रश्न-पुढविक्काइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ?
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