Book Title: Bhagvati Sutra Part 06
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 520
________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति ३१४९ 'अवगाहना संस्थान' पद के अनुसार । लेश्या सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म लोक में एक पद्म लेश्या और लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार में एक शुक्ललेश्या होती है । स्त्रीवेदी और नपुंसक वेदी नहीं होते, एक पुरुष वेदी ही होते हैं । प्रज्ञापना सूत्र के चौथे स्थिति पद के अनुसार स्थिति और अनुबन्ध जानना चाहिये । शेष ईशान देव के समान । काय संवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिये। .. 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने वाले असुरकुमारादि देव के लिये पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले देव यावत् ईशान देवलोक तक के देव का अतिदेश किया गया है । इसका कारण यह है कि ईशान देवलोक तक के देव ही पृथ्वीकायादि में उत्पन्न होते हैं, किन्तु यहाँ आठवें स्वर्ग तक से आ कर उत्पन्न होते हैं। इसके परिमाण, संहनन आदि का कथन पहले किया जा चुका है। भवादेश आदि के लिये भी पूर्ववत् अतिदेश किया गया है । अवगाहना के लिये प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें पद का अतिदेश किया गया है । वह इस प्रकार है-- भवणवणजोइसोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ। एककेक्क हाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्के य ॥ अर्थात्-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट सात रत्नि (हाथ) है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में छह रत्नि, ब्रह्मलोक और लान्तक में पांच रत्नि, महाशुक्र और सहस्रार में चार रत्नि, आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में तीन रनि की अवगाहना होती है। उत्तर-वैक्रिय अवगाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है । स्थिति समी में भिन्न-भिन्न है । जिसका निर्देश अन्यत्र कर दिया गया है। स्थिति के अनुसार उपयोगपूर्वक संवेध कहना चाहिये । ... ॥ चौबीसवें शतक का बीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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