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भगवती सूत्र-ग. २० उ. ३ आत्म-परिणत पाप-धर्म बुद्धि आदि
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जीता है अर्थात् प्राण धारण करता है और आयुकर्म तथा जीवत्व का अनुभव करता है, इसलिये इसे जीव कहते हैं । जीव शुभाशुभ कर्मों के साथ सम्बद्ध है, अच्छे और बुरे कार्य करने में समर्थ हैं अथवा सत्ता वाला है, इसलिये इसे 'शक्त, सक्त या सत्त्व' कहते हैं। कड़वे, कर्षले, खट्टे, मीठे आदि रसों को जानता है । इसलिये जीव 'विज्ञ' कहलाता है । जीव सुख-दुःख का भोग करता है, इसलिये वह 'वेद' कहलाता है। यह नवीन नहीं, प्राचीन है अर्थात् अनादि है, इसलिये यह 'मानव' कहलाता है। यह नाना गतियों में हिण्डन (भ्रमण) करता है, इसलिये इसे 'हिण्डुक' कहते हैं । इस प्रकार अन्यान्य नामों के भी निरुक्ति से भिन्न-भिन्न अर्थ हैं । परन्तु वे सब उन्हीं के पर्यायवाची शब्द हैं ।
॥ वीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक २० उद्देशक ३
आत्म-परिणत पाप-धर्म बुद्धि आदि
१ प्रश्न-अह भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे,उप्पत्तियाजाव पारिणामिया, उग्गहे जाव धारणा, उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसकारपरकमे, गेरइयत्ते, असुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए, कण्हलेस्सा जाव सुकलेस्सा, सम्मदिट्ठी ३, चक्खु.
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