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३०२२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मंज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात तिहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई, एवइयं कालं सेवेजा जाव करेजा ९ ।
८६-उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सातवीं नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिक में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध पर्यंत । संवेध, भव से जघन्य तीन मव और उत्कृष्ट पांच भव तथा काल से जघन्य दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ९।
विवेचन-परिमाण, संहनन आदि की प्राप्ति जो रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले नै रयिक की कही गई है, वह शर्कराप्रभा के विषय में भी जाननी चाहिये । शर्कराप्रभा में संज्ञी जीव की अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है । क्योंकि शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है। उसे चार से गुणा करने पर बारह सागरोपम होती है । इसी प्रकार मंजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के चार भवों में चार पूर्वकोटि होती है।
रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है । शर्कराप्रभा आदि नरक पृथ्वियों में क्रमशः तोन, सात, दस, सतरह, बाईस और तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । पूर्व-पूर्व की नरक पृथ्वियों में जो उत्कृष्ट स्थिति होती है, वही आगे-आगे की नरक पृथ्वियों में जघन्य स्थिति होती है । अतः शर्कराप्रभा आदि में स्थिति और संघ के विषय में सागरोपम कहना चाहिये । छठी नरक पृथ्वी तक नव ही गमकों का कथन रत्नप्रभा के गमकों के तुल्य है। जिम नरक की. जितनी उत्कृष्ट स्थिति है. उत्कृष्ट कायसवेध उससे चार गुणा है । जैसे तीसरी वालुकाप्रभा नरक की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम है उसे चार से गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम से उत्कृष्ट कायसंवेध होता है। इसी प्रकार आगे-आगे की नरक पृथ्वियों में भी समझना चाहिये।
. पहली और दूसरी नरक में छहों संहनन वाले जीव जाते हैं। फिर आगे-आगे की नरकों में एक-एक संहनन कम होता जाता है । अत: तीसरी में पांच संहनन वाले, चौथी में चार संहनन वाले, पाँचवीं में तीन संहनन वाले, छठी में दो संहनन वाले और सातवीं में केवल वज्र ऋषभनाराच संहनन वाले ही जाते हैं । सातवीं नरक में स्त्रीवेदी जीव नहीं जाते, क्योंकि स्त्रीवेदी जीवों की उत्पत्ति छठी नरक तक ही होती है।
सातवीं नरक में जघन्य तीन भव कहे गये है अर्थात् दो जलचर मत्स्य के भव और एक नरक भव, इस प्रकार जघन्य तीन भव होते हैं और उत्कृष्ट चार मत्स्य भव
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