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भगवती सूत्र - श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात
भवादेश पर्यन्त । काल से जघन्य वर्ष - पृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । इस प्रकार औधिक के तीनों गमकों में ( औधिक का औधिक में उत्पन्न होना, afar की जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होना और औधिक का उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होना) मनुष्य की वक्तव्यता के समान लब्धि कह देनी चाहिए। संवेध नैरयिक की स्थिति और कालादेश से कहना चाहिए १-२-३ |
१०३ - सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि तिसु विगमएस एस चैव लद्धी । णवरं सरीरोगाहणा जहणेण रयणिपुहुत्तं, उक्कोसेण वि रयणिपुहुत्तं, ठिई जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उकोमेण वि वासपुहत्तं, एवं अणुबंधो वि । सेसं जहा ओहियाणं । संवेहो सन्चो उवर्जुजिऊण भाणियको ४-५-६ ।
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भावार्थ - १०३ - वह जघन्य स्थिति का संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त मनुष्य, शर्कराप्रमा में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये, विशेषता यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्निपृथक्त्व होती है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्ष- पृथक्त्व । इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । शेष सब औधिक गमक के समान और संवेध भी उपयोग पूर्वक जानना चाहिये ४-५-६ ।
१०४ - सो चेव अप्पणा उक्कोसका लट्ठिईओ जाओ । तस्स वि तिसु वि गमएस इमं णाणत्तं - सरीरोगाहणा जहणेणं पंचभणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई, ठिई जहणेणं पुव्वकोडी, उकोसेण
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