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भगवंती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति
गमकों में स्थिति आदि का कथन इसी शतक के प्रथम उद्देशक में संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच के साथ नरयिक जीवों के समान है।
सात नरकों को अवगाहना का कथन प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें पद में इस प्रकार
__सत्त धणु तिणि रयणी, छच्चेव य अंगुलाई उच्चत्तं ।
___पढमाए पुढवीए बिउणा विउणं च सेसासु ।।
अर्थात्-प्रथम नरक में अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल होती है । आगे दूसरी आदि नरकों में क्रमशः दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है।
दूसरी आदि नरकों में संज्ञी जीव हो उत्पन्न होते हैं । इसलिये उन में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियम से होते हैं।
उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम का जो कथन किया गया है, वह भव और काल की बहुलता की विवक्षा से किया गया है । यह संवेध जघन्य स्थिति वाले सप्तम पृथ्वी के नैरयिक में पाया जाता है, क्योंकि सातवीं नरक में तीन भवों की जघन्य स्थिति ६६ सागरोपम होती है और पंचेंद्रिय तिर्यंच के तीन भवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि होती है । यदि उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की आयु वाला नैरयिक हो और पूर्वकोटि के आयु वाले पंचेंद्रिय तिर्यंच में आवे, तो इस प्रकार दो बार ही उत्पत्ति होती है। इससे दो पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम ही स्थिति होती है, तिर्यंच-भव सम्बन्धी तीसरे पूर्वभव की कोटि नहीं होती । इस प्रकार भत्र और काल की उत्कृष्टता नहीं होती।
९ प्रश्न-जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववनंति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो?
९ उत्तर-एवं उववाओ जहा पुढविकाइयउद्देसए जाव
भावार्थ-९ प्रश्न-यदि वह संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच, तियंच-योनिक से आता है, तो क्या एकेन्द्रिय तियंच-योनिक से आता है, इत्यादि ?
९ उत्तर-पृथ्वीकायिक उद्देशक के अनुसार यहाँ उपपात जानना चाहिये। यावत्
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