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भगवती सूत्र - श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०९९
संवेहं च जाणेजा । सव्वत्थ दो भवग्गहणाई जाव णवमगमए काला - देसेणं जहणेणं साइरेगं मागगेवमं बावीसाए वामसहस्सेहिं अभ हियं, उकोसेण वि साइरेगं सागरोवमं वावीमाए वाससहस्सेहिंअमहियं एवइयं ० ९ ।
भावार्थ - ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन-सा है ? ४७ उत्तर - हे गौतम! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं । यथाभवधारणीय और उत्तर वैक्रिय । भवधारणीय शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला होता है, और उत्तरवैक्रिय शरीर अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है । उनके लेश्या चार, दृष्टि तीन, ज्ञान नियमा तौन, अज्ञान भजना से तीन, योग तीन, उपयोग दो, संज्ञा चार, कषाय चार, इन्द्रियां पांव, समुद्वात पांच और वेदना दो प्रकार की होती है । वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं, नपुंसकवेदीं नहीं होते । स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम होती है । अध्यवसाय असंख्यात प्रकार के प्रशस्त और अप्रशस्त होते हैं । अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है । संवेध-भवादेश से दो भव तथा कालादेश से
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अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक सातिरेक एक सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । इस प्रकार नौ गमक जानने चाहिये । विशेष यह है कि मध्य के तीन गमक और अंतिम तीन गमक इन छह गमकों में असुरकुमारों की स्थिति के विषय में विशेषता है । शेष औधिक वक्तव्यता और कायसंवेध जानना चाहिये । संवेध में सर्वत्र दो भव जानने चाहिये । इस प्रकार यावत् नौवें गमक में कालादेश से जघन्य बाईस हजार वर्ष अधिक सातिरेक सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है (१-९) ।
४८ प्रश्न - नागकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु ?
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