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भगवती सूत्र - श २४ उ १ नैरविकादि का उपपातादि
विवेचन - यहां असंजी नियंत्र पञ्चेन्द्रिय के विषय में बीस द्वार कहे हैं। वे प्रायः स्पष्टार्थ ही हैं । कायसंवेध के विषय में इस प्रकार समझना चाहिये । जो जीव पूर्व-भव में असंज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय हो और वहां से मर कर नरक में उत्पन्न हो तो नरक से निकल कर फिर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नहीं होता । वह अवश्य संजीवन प्राप्त करता है । इसलिए भव की अपेक्षा दो भव काय संवेध जानना चाहिये । काल की अपेक्षा जघन्य कायसंवेध असंजी के जघन्य अन्तर्मुहूर्त आयुष्य सहित नरक की जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाला होता है और उत्कृष्ट कायसंवेध असंज़ी के पूर्वकोटि व प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य सहित । रत्नप्रभा में उसका उत्कृष्ट आयुष्य पत्योपम के असख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिये ।
२८ प्रश्न - पज्जत्ता असणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जहण्णका लट्टिईएस रयणप्पभापुढविणेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइकालट्टिईएस उववज्जेज्जा ?
२८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईए. उनकोसेण वि दसवाससहसईिएस उववजेजा ।
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भावार्थ : - २८ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी में जघन्य काल स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
२८ उत्तर - हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ।
२९ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? २९ उत्तर - एवं सच्चैव वत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा जाव
अणुबंधोति ।
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