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भगवती मूत्र-ग. २० उ. ८ महाविदेह के तीर्थंकरों का धर्म
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खण्ड द्वीप में और बारह अर्द्ध पुष्कर द्वीप में हैं।
जिस काल में जावों के संहनन और सम्यान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाय, आयु और अवगाहना बढ़ते जाय तथा उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार पराक्रम को वृद्धि होती जाय, वह 'उत्सर्पिणी' काल है । इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ होते जाते हैं । अशुभतम, अशुभतर और अशुभ भाव क्रमशः शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते हैं। इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आ जाती है । उत्सर्पिणी काल दस क्रीडाकोड़ी सागरोपम का होता है ।
जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाय, आयु और अवगाहना घटती जाय तथा उत्थान-कम-बल-वीर्य और पुरुषकार पराक्रम का ह्रास होता जाय, वह 'अवसर्पिणी' काल है । इस काल में पुद्गलों के वर्ण-गन्ध-रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं । शुभ भाव घटते जाते हैं और अशुभ भाव बढ़ते जाते हैं । अवसर्पिणी काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है ।
महाविदेह के तीर्थंकरों का धर्म ५ प्रश्न-एएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो पंचमहव्वइयं सपडिकमणं धम्मं पण्णवयंति ?
५ उत्तर-णो इणढे समढे । एएसु णं (भंते !) पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु, पुरिम-पच्छिमगा दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहब्वइयं (पंचाणुव्वइयं) सपडिकमणं धम्मं पण्णवयंति, अवसेसा णं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति । एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउजामं धम्मं पण्णवयंति ।
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! पांच महाविदेह में अरिहन्त भगवान् पांच महावत और सप्रतिक्रमण धर्म का उपदेश करते हैं ?
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