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भगवती मूत्र-श. २० उ. १० चौरासी-समर्जित
समजित हैं। इस कारण हे गौतम ! यावत् पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है।
२४ प्रश्न-हे भगवन् ! चौरासी-समजित आदि नरयिकों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ?
२४ उत्तर-हे गौतम ! चौरासी-सजित, नो-चौरासी-समजित इत्यादि नैरयिकों का अल्प-बहुत्व षट्क-समजित के समान है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यंत । विशेष यह है कि यहां षट्क के स्थान में 'चौरासी' समझना चाहिये।
२५ प्रश्न-हे भगवन् ! चौरासी-समजित, नो-चौरासी-समजित और चौरासी, नो चौरासी-समजित सिद्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ?
. २५ उत्तर-हे गौतम ! चौरासी, नो-चौरासी-समजित सिद्ध सब से थोड़े हैं । उनसे चौरासी-समजित सिद्ध अनन्त गुण हैं। उनसे नो-चौरासी-समजित सिद्ध अनन्त गुण है।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैंकह कर गौतम स्वामी यावत विचरते हैं।
विवेचन-एक समय में, एक साथ चौरासी संख्या का समुदाय रूप उत्पन्न हो, उसे 'चौरासी-समर्जित' कहते हैं । एक से ले कर तिरयासी तक उत्पन्न हों, उनको 'नो-चौरासीसमजित' कहते हैं । इसी प्रकार आगे के शब्दों का भी अर्थ है। शेष सब सुगम है।
सिद्धों में चौरासी-समजित के तीन भंग कहे हैं। उनमें से तीसरे मंग में (चौरासी, नो-चौरासी-समजित में) यहां 'नो-चौरासी' में एक से ले कर चौवीस तक ही लेने चाहिये । चौरासी में चौबीस संख्या को जोड़ने से १०८ हो जाते हैं । एक समय में १०८ से अधिक सिद्ध नहीं होते, इसलिये यहां सिद्धों के विषय में चौरासी के साथ 'नो-चौरासी' में उत्कृष्ट संख्या तिरयासी तक न ले कर चौवीस तक ही लेनी चाहिये ।
॥ बीसवें शतक का दसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
। बीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥
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