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२९६४ भगवती मूत्र-ग. २२ वर्ग ३ उ. १-१० अगस्तिकादि के मूल की उत्पत्ति
लिंग-विल्ल-आमलग-फणस-दाडिम-आसत्थ उंबर वडणग्गोहणंदिरुक्ख पिप्पलि सतर-पिलखुरुक्ख-काउंबरिय-कुच्छु भरिय-देवदालि-तिलगलउय-छत्तोह-सिरीस-सत्तवण्ण-दहिवण्ण-लोद्ध धव-चंदण-अज्जुण-णीवकुडग-कलंबाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! ०?
१ उत्तर-एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा णेयवा जाव वीयं ।
॥ बावीसइमे सए तइओ वग्गो समत्तो ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अगस्तिक, तिन्दुक, बोर, कवीठ, अंबाडक, बिजोरा, बिल्व, आमलक (आंवला), फणस, दाडिम, अश्वत्थ (पीपल), उंबर, बड़, न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष, पीपर, सतर, प्लक्षवृक्ष (ढाक का वृक्ष) काको-दंबरी, कुस्तुंभरी, देवदालि, तिलक, लकुच (लीच), छत्रौघ, शिरीष, सप्तपर्ण (सादड़) दधिपर्ण, लोध्रक (लोद), धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज और कदंब, इन सब वृक्षों के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ?
१ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम ताड़ वृक्ष के समान यहां भी मूल से ले कर बौज तक दस उद्देशक कहने चाहिये ।
॥ बाईसवें शतक का तीसरा वर्ग सम्पूर्ण ॥
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