________________
२९७८
भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ नैरधिकादि का उपपातादि
द्वार तो जीव जहां उत्पन्न होता है, उस स्थान की अपेक्षा से हैं । तीसरे से उन्नीसवें तक सतरह द्वार, उत्पन्न होने वाले जीव के इस भव सम्बन्धी हैं और बीसवां द्वार दोनों भव सम्बन्धी सम्मिलित है। इस प्रकार चौबीसवें शतक में चौबीस दण्डक सम्बन्धी चौबीस उद्देशक कहे जायेंगे।
विवेचन-उपपात आदि बीस द्वारों का अर्थ स्पष्ट है । 'उपपात' का अर्थ है-नैरयिकादि कहाँ से आते हैं ? 'परिमाण' का अर्थ है-नरयिकादि में उत्पन्न होने वाले जीवों की गणना (संख्या)। इसो प्रकार संहनन, संस्थान आदि का भी अर्थ समझना चाहिये । 'अनुबन्ध' का अर्थ है-विवक्षित पर्याय से अव्यवछिन्न रहना । 'कायसंवेध' का अर्थ हैविवक्षित काय से कायान्तर (दूसरी काया) अथवा तुल्यकाय में जा कर पुनः यथासम्भव उसो काया में आना ।
शतक २४ उद्देशक १
नैरयिकादि का उपपातादि
१ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-णेरइया णं भंते ! कओ. हिंतो उववज्जति, किं णेरइएहिंतो उववज्जति, तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, देवेहितो उववज्जति ?
१ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जति, मणुस्सेहितो वि उववजंति, णो देवेहितो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org