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भगवती सूत्र - श. २० उ. ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या
सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तर० ?
८ उत्तर - एवं जहा सत्तरसमस वाउका इय उद्देसए तहा इह वि, णवरं अंतरेसु समोहणा यव्वा, मेसं तं चैव जाव अणुत्तर विमाणाणं ईसीप भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए घणवाय तणुवाए घणवाय तणुवायवलएस वाउकाइयत्ताए उववजित्तए, सेमं तं चैव जाव मे तेणट्टेण जाव उववज्जेज्जा ।
* 'सेवं भंते ! मेवं भंते' ! ति
|| वीस मे सए
ओ उद्देमो समत्तो ॥
भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरण-समुद्घात कर के सौधर्म कल्प में . वायुकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न ।
८ उत्तर - हे गौतम ! सतरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक के •अनुसार यहां भी जानना चाहिये। विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अन्तरालों में मरण - समुघात पूर्वक कहना चाहिये, शेष सब पूर्ववत् है । इस प्रकार यावत् अनुत्तर विमान और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात कर के जो वायुकायिक जीव घनवात और तनुवात में तथा घनवात वलयों और तनुवात वलयों में वायुकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् । यावत् इस कारण उत्पन्न होते हैं ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'
कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं ।
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॥ बीसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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