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भगवती सूत्र-ग. २० उ. ७ अनन्तर-परम्पर वन्ध
प्रश्न-हे भगवन् ! वैमानिक के विभंगज्ञान का बन्ध कितने प्रकार का है?
उत्तर-हे गौतम ! तीन प्रकार का है। यथा-जीव-प्रयोग बन्ध, अनन्तर बन्ध और परम्पर बन्ध ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेनन-जीव के प्रयोग से अर्थात् मन, वचन, काया के व्यापार से कम-पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना ‘जीव-प्रयोग बन्ध' कहलाता है । कर्म-पुद्गलों का बन्ध होने के बाद के समय में जो बन्ध होता है, उसे 'अनन्तर बन्ध' कहते हैं । इसके पश्चात् द्वितीयादि समय में जो बन्ध होता है, उसे 'परम्पर बन्ध' कहते हैं।
उदय प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध पूर्व-काल को अपेक्षा जानना चाहिये । अथवा ज्ञानावरणीयपने जिसका उदय है, ऐसे कर्म का बन्ध समझना चाहिये, क्योंकि कम, विपाक से और प्रदेशों मे-दोनों तरह मे वेदा जाता है । अत: यहाँ विपाकोदय मे वेदे जाने योग्य कर्म का बन्ध समझना चाहिये । अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में जो कर्म बंधता है अथवा वेदा जाता है, उम कर्म का बन्ध जानना चाहिये।
___ आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध को 'वन्ध' कहते हैं-यह बात पहले कही जा चुकी है। परन्तु यहाँ कर्म-पुद्गलों का अथवा अन्य पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना 'वन्ध' माना जाय, तो ओदारिकादि शरीर, आहार आदि संज्ञाजनक कर्म और कृष्णादि लेण्या का बन्ध तो घटित हो सकता है, परन्तु दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान और तद विषयक बन्ध कैसे हो सकता है ? क्योंकि ये मब अपोद्गलिक (आत्मिक) है। इसका उत्तर यह है कि यहाँ का बन्ध का अर्थ केवल सम्बन्ध विवक्षित है, इसलिये सम्यगदृष्टि आदि का जीव प्रयोगादि बन्ध घटित हो जाता है।
॥ बीसवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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