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भगवती मूत्र श २. उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि
णुओं में जो शीत और रूक्ष स्पर्श है उनमें से शीत स्पर्श को द्रव्य की प्रधानता से और क्षेत्र की गौणता से अनेक देश मानने पर तथा रूक्ष स्पर्श को क्षेत्र की प्रधानता और द्रव्य की गौणता से एक देश मानने पर 'अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष रूप सातवां भंग बनता है। जब त्रिप्रदेशावगाढ़ त्रिप्रदेशी स्कंध का एक प्रदेश उष्ण और स्निग्ध होता है शेष दो प्रदेश शीत और रूक्ष होते हैं तब 'अनेक देश शीत एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष रूप आठवां भंग पाया जाता है । जब त्रिप्रदेशावगाढ़ त्रिप्रदेशी स्कंध का एक प्रदेश उष्ण और रूक्ष होता है, शेष दो प्रदेश शीत
और स्निग्ध होते हैं तब 'अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष' रूप नौवां भंग बनता है । इसी प्रकार आगे भी चार प्रदेशी आदि स्कंधों में भी उपयोग लगा कर द्रव्य क्षेत्र की प्रधानता गौणता से यथायोग्य भंग बना लेना चाहिए। उपर्युक्त प्रकार से एक ही भंग में एक स्पर्श में द्रव्य की मुख्यता गौणता तो दूसरे स्पर्श में क्षेत्र की मुख्यता गौणता करने से ही ये भंग वनते हैं अन्यथा प्रकार से ये संभव नहीं हैं । प्रसिद्ध सिद्धान्तवादी श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण भी अपनी विशेषणवती के सतरहवें विशेषण में शंका समाधान के रूप में इस बात को इसी प्रकार कहा है । यथा
बीसइमसउद्देसे चउप्पए साइए चउप्फासे । एग बहुवयणमीसा बी आइया कहं मंगा ।। १ ।। देसो देसावमया दव्वक्षेत्तवसओ विवक्लाए ।
संघाइय मेयतदुभय भावाओऽवी वयणकाले ।। २ ।। भावार्थ-शंका-बीसवें शतक के पांचवें उद्देशक में चतुःप्रदेशी आदि स्कंधों के चार स्पर्श सम्बंधी एक वचन बहुवचन के मिश्र (सम्मिलित) द्वितीयादि भंग किस प्रकार समझना?
समाधान -शीत उष्ण के एक देश और स्निग्ध रूक्ष के अनेक देश या स्निग्ध या स्निग्ध रूक्ष के एक देश और शीत उष्ण के अनेक देश इस प्रकार एक देश, अनेक देश रूप जो द्वितीयादि मिश्र भंग हैं, वे विवक्षा भेद से द्रव्य और क्षेत्र की प्रधानता गौणता के कारण से बने हैं । अर्थात् एक वचन के स्पर्श में द्रव्य की प्रधानता मान ली गई है । इस प्रकार कथन के समय में अर्थात् भंग रचना के समय में संघातित (अवगाहित क्षेत्र की प्रधानता) भेद (द्रव्य की प्रधानता) और तदुभयता (द्रव्य और क्षेत्र की प्रधानता) होने से ये चार स्पर्श सम्बन्धी द्वितीयादि भंग होते हैं।
इस प्रकार श्री जिनभद्र गणि भी इन भंगों की संगति इसी प्रकार बिठाते हैं। इसलिए मंगों की संगति उपर्युक्त प्रकार से ही समझनी चाहिए ।
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