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२७४० भगवती सूत्र - श. १८ उ. ८ अन्यतीर्थियों से गोतम स्वामी का वाद
५- तर ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी- 'केणं कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो ।' तप णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी तुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह, जाव उद्दवेह, तए णं तुब्भे पाणे पेच्चमाणा जाव उद्यमाणा तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवह ।' तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं पडिहणइ, पडिणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंद णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता पचास जाव पज्जुवासइ ।
भावार्थ - ५ - अन्यतीर्थियों ने गौतम स्वामी का कथन सुन कर इस प्रकार कहा - 'हे आर्यों! हम किस प्रकार त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हैं ?' तब गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थियों से कहा- 'हे आर्यों ! चलते हुए तुम प्राणियों को आक्रान्त करते हो यावत् पीड़ित करते हो । जीवों को आक्रान्त करते हुए यावत् पीड़ित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो ।'
इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थियों को निरुत्तर किया । इसके पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में आ कर उन्हें वन्दना नमस्कार कर के न अति दूर, न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगे ।
विवेचन - श्रमण निर्ग्रन्थ का शरीर चलने में समर्थ हो, तभी चलते हैं। क्योंकि वे नंगे पाँव विहार करते हैं, गाड़ी, घोड़ा आदि वाहन का वे उपयोग नहीं करते । वे योग के प्रयोजन से गमन करते हैं अर्थात् ज्ञान ग्रहण आदि कोई कारण हो या गोचरी आदि जाना हो, तभी चलते हैं, बिना कारण नहीं चलते। वे चपलता और शीघ्रता से रहित ईर्यापथ शोधनपूर्वक अर्थात् सूक्ष्मतापूर्वक देख कर चलते हैं ।
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